बीस बरस बस इतना ही देखा था उसे। हर रोज जब स्कूल से घर, घर से स्कूल को गुजरता तो उसके बारे में सुनकर, कदम ठहर जाते और कुछ टूटा-फूटा सा सुनने को मिलता।
“विकास होगा तो उत्तराखंड मिनी स्विट्जरलैंड बनेगा”, अक्सर अखबारों में उसके बारे में लिखे लेख, मुझे उसकी तरफ आकर्षित करते। पिताजी चाय सुढ़क कर अखबार का पन्ना टटोल रहे होते। तो मेरी नजर अखबार में ताँका झाँकी करती। जिस उम्र में बच्चों के खेलने कूदने के दिन होते थे। मैं कान लगाकर बस उसके बारे में ही जानना चाहता था। उसे करीब से समझना चाहता था। आखिर ये विकास है कौन?
छठवीं तक आते आते विकास नाम के कीड़े को देख भी लिया था। वो कीड़ा जो धीमे-धीमे रेंग कर जमीन खोकली बनाता जा रहा है और इस खोकले पन में मौजूद है संस्कृति, समाज और रिश्तों का ताना बाना।
समझदार कहते हैं कुछ कहने से पहले दो बार सोचना चाहिए। मगर ये सवाल उठता है, दो बार सोचने के बाद भी सवाल वही रहे! बात वही रही! और जवाब वही रहे तो उसके आगे की प्रोसेस क्या है ?
जब स्कूल के दिनों में था तो 9वीं में मुझे कविता लिखने को कहा गया।
नहीं, आप गलत समझ रहे हैं ! किसी टीचर ने नहीं बल्कि मेरे अंदर किसी शख्श ने। वही शख्श जो आपको भी उकसाता रहता है। कुछ करने, कुछ बड़ा करने या कुछ नहीं करने के लिए।
उस वक़्त बूढ़ापे पर कविता लिखी थी।
काश! उसके बोल अभी भी याद रहते या फिर मैं इतना लापरवाह नहीं रहता या मेरी माँ को हर भरी कॉपी को कबाड़ी को देने की जल्दी न रहती तो मैं आज उस लिखे हुए से कुछ लाइन उधार ले पाता। उस दौरान लिखना एक आम बात थी और मोबाइल ख़ास बात। आज मोबाइल होना आम बात और लिखना बेकार बात।
ये इसलिए नहीं की लोग समझते हैं। बल्कि इसलिए की मैं समझता हूँ। भला किसे आज लिखना और पढ़ना पसंद है! सब फ़ालतू चीज। खैर मैं फालतू हूँ मुझे दोनों ही पसंद हैं।
मैं जब कविता की उन चाँद लाइन को लिख रहा था कि मैं बुढ़ापा महसूस कर रहा हूँ। एक पल में ही बुढ़ापे की उम्र काट रहे लोगों के लिए हमदर्दी पनपने लगी। मुझे लगा मेरा दिल ऐसा ही है मैं ऐसा ही बना हूँ। सबसे विचित्र।
विचत्र होने की पहली और आखरी बात, जो लोग करते हैं उस लाइन में गलती से मत फटक जाना। वरना विचित्रता की कार्यशैली नहीं सीख पाओगे।
पहली बार कविता लिखी तो आसमान, चादर और जमीं समाज आयी। दूसरी बार राजनीती पर लिखा तो इतिहास की घटनाएं सजीव होने लगी। और लगा जो वर्तमान घटित हो रहा है। वो लोकतान्त्रिक मर्यादित समाज से कोशों दूर है।
हिंदी का एक शब्द है दूर द्रिष्टि यानी वो आदमी जो बहुत दूर की सोच के चलता है। उसे वर्तमान दिमाग कभी समझ ही नहीं पाता। तब तक नहीं जब तक वो इतिहास नहीं बन जाता । उदारहण के तौर पर माँ बाप वो काफी दूर दृष्टि है अपने बच्चों को लेकर और इस चल रहे वक़्त में वो दुश्मन लगते हैं मगर क्या पता आगे चल कर उनके प्रयास आपको समझ में आये। जब आप माँ-बाप बने तब।
मगर राजनीती में ये समझने का क्या पैमाना हो सकता है। यहां हर नागरिक तो नेता तो नहीं बन सकता। ना चाय वाला प्रधानमंत्री। इस उम्मीद से शायद दुनिया ने भी उम्मीदों की नींद से करवट ले ली होगी।
पर ये बता दूँ मैं दूर दृष्टि हूँ, और वो सब भी जो कुछ सोच कर बस लिखे जा रहे हैं। वे सब भी दूर दृष्टि है। वार्ना एक वकील, फ़क़ीर का भेष रख कर सारी दुनिया को अहिंसा का पाठ क्यों पढ़ाता? एक नौजवान रंग दे बसंती चोला गाकर फांसी को गले क्यों लगता ? एक सिपाही, फ़ौज बना कर हिटलर से मिलकर दुनिया को अपनी ताकत क्यों दिखाता? एक अख़बार बेचने वाला मिसाइल मैन क्यों कहलाता ?
इतना लिखने के बाद तुम सोचोगे बस मर्दों की बात की औरतो की नहीं। और अगर तुम्हारे दिमाग में ये ख्याल आया तो आप उन लोगों में हो जो ये मानते हैं कि औरतें कुछ भी कर सकती हैं।
मैं तो मानता हूँ। तभी जब मुझे प्रेम के एहसास, दर्द की गहराइयों और जुदाई की तड़प को समझना होता है तो औरतों की लिखी हर किताब को पढ़ने लगता हूँ।
औरतों की दूरदृष्टिता के बारे में बस एक लाइन ही काफी है, कि वो देश जिसने हमें 200 साल लूटने के बाद हमारी संस्कृति, समाज और व्यवस्थाओं को छिन्न-भिन्न करने के बाद हमारे देश को प्रसासनिक ढांचा देकर लोकतान्त्रिक बनाने का दम्भ भरा, आजतक उसके देश के लोग अपने देश में क़्वीन की चाटुकारिता करते हैं और चाहते हैं एक बार बकिंगघम पैलेस की दहलीज को लांघ सके।
लेखों की बात करूँ तो सेक्सवर्कर्स, लेस्बियन, फेमिसिनिस्म जैसे शब्द पढ़ने में उतना नहीं लुभा पाया जितना इन्हे लिखना।
मुझे याद है कि एक वक़्त पहले हम छोटी सी चिट्ट लिख कर भगवान के पास छोड़ जाते थे या दिल-ए-इजहार किया करते थे, उसे भी एक चिट्ठी से बताना होता था। उस लिखे हुए में भाव अगर नहीं दीखते तो फिर चीजें मिलना मुश्किल था। और भाव तभी लिखे हुए मन में आएंगे जब अंदर कुछ उस चीज का महत्त्व या एहसास होगा।
आने वाले समय में पेरेंटिंग कितना मुश्किल होगा उसका आसान जवाब इस लिखने में ही छुपा है। तो अगर आप उन सफल लोगों में से है जिन्होंने मेरे लेख के आखरी शब्दों को छू लिया है तो आज ही आप भी लिखना शुरू करें या अपने बच्चों को सिखाएं। हर चीज आसान हो जाएगी।
वरना आप मेरे किसी सब्सक्राइबर की तरह मुझसे ही मेल लिखने की गुजारिश करेंगे और मैं सिरे से उसे नकार दूंगा। तो आप भी इस महंगाई के ज़माने में आप भी भाव खाना सीखिए। खैर उम्मीद करते हैं अब आप समझ ही गए होंगे आपको मुझे क्यों पढ़ना चाहिए। ताकी ऐसे ही रचनात्मक लेख सोचकर आपको कुछ बता सकूँ।