उत्तराखंड की पहाड़ियों में जब बसंत दस्तक देता है, तो पीले रंग के सुंदर फूल चारों ओर खिल उठते हैं। इन्हीं फूलों में से एक है फ्योंली का फूल, जो न सिर्फ अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है, बल्कि इसके पीछे एक अमर लोककथा भी छुपी है। यह कोई साधारण फूल नहीं, बल्कि एक राजकुमारी की अधूरी प्रेम कहानी और उसकी यादों का प्रतीक है।
कहते हैं कि सदियों पहले एक राजकुमारी प्योली की प्रेम कहानी पहाड़ों से निकलकर दूर देश तक चली गई थी, लेकिन उसकी उदासी ने इस फूल को जन्म दिया। हर साल जब फूलदेई पर्व मनाया जाता है, तो बच्चे घर-घर जाकर इसी फूल को चढ़ाते हैं, मानो वे उस राजकुमारी की याद को ताजा कर रहे हों। आखिर क्या है फ्योंली के फूल की दर्दभरी कहानी? आइए, इसे विस्तार से जानते हैं…
फ्योंली के फूल की अमर लोककथा | Folktale of the Pyoli Flower
उत्तराखंड की हरी-भरी पहाड़ियों में बसा था एक छोटा-सा गाँव, जहाँ हर सुबह सूरज की पहली किरणें देवदार के लंबे-लंबे पेड़ों के बीच झिलमिलाती थीं। यहाँ की मिट्टी की खुशबू में एक अलग मिठास थी, यहाँ के पहाड़ों पर ठंडी हवा संगीत की तरह बहती थी। इस गाँव के लोग सरल जीवन जीते थे—पशुपालन, खेती-बाड़ी और प्रकृति की गोद में अपनी कहानियाँ संजोते थे।
इसी गाँव में एक गरीब किसान परिवार रहता था। इस परिवार के पास संपत्ति तो नहीं थी, लेकिन उनकी दुनिया में खुशियों की कोई कमी नहीं थी। और इन खुशियों की सबसे बड़ी वजह थी उनकी बेटी—फ्योंली।
फ्योंली का जन्म एक आम दिन पर हुआ था, लेकिन गाँववालों के लिए वह कोई साधारण लड़की नहीं थी। उसकी माँ कहती—
“मेरी बिटिया तो फूल जैसी है।”
इसीलिए, उसका नाम भी फ्योंली रखा गया।
फ्योंली की सुंदरता की मिसाल पूरे गाँव में दी जाती। उसकी आँखें झील-सी गहरी थीं, जिनमें झाँकने पर जैसे पूरी प्रकृति का अक्स दिखता। उसकी मुस्कान में पहाड़ों की हवा की ताजगी थी और उसके बाल काली घटाओं की तरह घने थे।
लेकिन फ्योंली केवल सुंदर ही नहीं थी, वह मन से भी बहुत निश्छल थी। उसे प्रकृति से गहरा लगाव था। वह जंगलों में घूमती, नदियों से बातें करती, फूलों को सहलाती और पक्षियों के साथ गुनगुनाती। उसकी हर सुबह पहाड़ों के देवदार और बुरांश के फूलों से होती और हर शाम झरनों की कलकल के साथ।
एक दिन, उसकी माँ ने उसे जंगल में नाचते हुए देखा। उसकी चूड़ियों की खनक और पाजेब की झंकार जैसे पूरी प्रकृति में समा गई थी। उसकी माँ ने प्यार से कहा—
“बिटिया, तू तो जंगल की परी है, यह पहाड़ ही तेरा असली घर है।”
फ्योंली हँसकर बोली—
“हाँ माँ, मैं कभी इस गाँव से दूर नहीं जाऊँगी!”
लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था…
गढ़वाल राज्य का युवा राजकुमार अपने सैनिकों के साथ शिकार खेलने जंगल में आया था। शाही काफिला जंगल की पगडंडियों से होते हुए गहरे जंगल में प्रवेश कर चुका था। दिनभर शिकार करने के बाद, राजकुमार और उसके सैनिक रास्ता भटक गए। सूरज ढलने लगा था, पहाड़ों पर हल्का कोहरा छाने लगा था, और जंगल में अंधेरा धीरे-धीरे गहराने लगा था।
थककर उन्होंने पास के गाँव में रुकने का निश्चय किया। गाँववालों ने शाही काफिले का स्वागत किया और उन्हें सबसे अच्छे घर में ठहराया—यही घर था फ्योंली के पिता का।
रात में, जब राजकुमार गाँव में टहल रहे थे, तब उन्होंने तालाब के किनारे एक छवि देखी। एक युवती पानी भर रही थी। चाँदनी रात में उसकी झील-सी आँखें चमक रही थीं, उसके लहराते केश हवा में घुल रहे थे।
राजकुमार की नजरें जैसे उस पर ठहर गईं।
“कौन है यह? इतनी सुंदरता तो मैंने कभी किसी राजमहल में भी नहीं देखी,” उन्होंने मन ही मन सोचा।
वह फ्योंली थी।
अगली सुबह, राजकुमार ने फ्योंली के माता-पिता से कहा—
“मैं आपकी बेटी से विवाह करना चाहता हूँ। मैं उसे अपनी रानी बनाऊँगा।”
गरीब किसान यह सुनकर अवाक रह गए। राजकुमार का प्रेम उनकी बेटी के लिए सम्मान की बात थी। गाँववालों को भी यह बात सुनकर गर्व महसूस हुआ।
लेकिन फ्योंली का मन असमंजस में था।
“क्या मैं अपने पहाड़ों को छोड़ पाऊँगी? क्या मैं इस गाँव को छोड़कर महल में रह पाऊँगी?”
पर माता-पिता की खुशी और गाँववालों की उम्मीदों के आगे उसकी इच्छा दब गई। विवाह की तैयारियाँ हुईं, और कुछ ही दिनों में, राजकुमार फ्योंली को अपने साथ महल ले गया।
महल सचमुच वैभवशाली था—ऊँचे गुम्बद, मखमली परदे, झूमर, सोने-चाँदी से जड़े कमरे, कीमती रेशमी वस्त्र, सुगंधित इत्र… पर क्या यह सब फ्योंली के मन को रोक पाया?
नहीं…
हर दिन, उसे अपने गाँव की याद आती। माँ की पुकार उसके कानों में गूँजती, पहाड़ी हवा की मिठास उसे सताने लगती। महल में सब कुछ था, पर उसकी आज़ादी नहीं थी।
धीरे-धीरे फ्योंली गुमसुम रहने लगी।
राजकुमार ने पूछा—
“तुम इतनी उदास क्यों हो? तुम्हें क्या कमी है?”
फ्योंली की आँखों में आँसू भर आए। उसने धीरे से कहा—
“मैं महल की रानी हूँ, पर मेरी आत्मा तो मेरे गाँव के जंगलों में बसती है। मुझे वहाँ जाना है।”
राजकुमार उसे समझाने लगे, लेकिन सच्चे प्रेम में ज़बरदस्ती नहीं होती। अंततः उन्होंने उसे मायके जाने की अनुमति दे दी।
फ्योंली खुशी-खुशी अपने गाँव लौटी। उसने माँ की गोद में सिर रखा, पहाड़ों की ठंडी हवाओं को महसूस किया, जंगल में अपने पुराने दोस्तों—पेड़ों और पक्षियों से बातें कीं।
लेकिन बहुत देर हो चुकी थी।
महल का दर्द, विरह की पीड़ा, और अंतहीन मानसिक द्वंद्व ने उसे अंदर ही अंदर खोखला कर दिया था।
धीरे-धीरे उसका शरीर कमजोर पड़ने लगा। उसका चेहरा जो पहले चाँद-सा दमकता था, अब पीला पड़ गया।
राजकुमार को जब यह समाचार मिला, तो वे दौड़ते हुए गाँव पहुँचे। उन्होंने फ्योंली का हाथ पकड़ा और बोले—
“क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूँ?”
फ्योंली ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
“मुझे इस पहाड़ी मिट्टी में दफना देना, जिससे मैं हमेशा अपने गाँव के साथ रह सकूँ।”
राजकुमार की आँखों में आँसू आ गए।
और फिर…उसने अपनी अंतिम साँस ले ली।
गाँव के लोगों ने उसे एक ऊँची पहाड़ी पर दफना दिया। कुछ दिनों बाद, वहाँ एक पीले फूल का पौधा उग आया।
गाँववालों ने इसे “फ्योंली“ नाम दिया।
आज भी, जब बसंत ऋतु आती है, तो पूरे पहाड़ों में फ्योंली के पीले फूल खिलते हैं। वे प्रेम, त्याग और विरह की अनंत गाथा कहते हैं।
कहते हैं, यही फूल ‘फुलदेई’ त्यौहार की प्रेरणा बना, जिसे उत्तराखंड में हर साल हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
गाँव की हर स्त्री जब यह फूल देखती है, तो उसके मन में फ्योंली की अमर कथा गूँज उठती है—
“फ्योंली तो चली गई, लेकिन उसकी याद बसंत में हर साल इन पहाड़ों में लौट आती है।”
Phooldei Festival 2025: फूलदेई, उत्तराखंड का अनोखा फूलों का त्योहार
यह पोस्ट अगर आप को अच्छी लगी हो तो इसे शेयर करें साथ ही हमारे इंस्टाग्राम, फेसबुक पेज व यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें।