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Panthya Dada: पंथ्या दादा, उत्तराखंड के वीर बालक की गौरवगाथा

पंथ्या दादा (Panthya Dada)

पंथ्या दादा (Panthya Dada)

पंथ्या दादा (Panthya Dada) उत्तराखंड का इतिहास अनेक महापुरुषों की वीर गाथाओं से भरा हुआ है। इन्हीं में से एक नाम है पंथ्या दादा (Panthya Dada), जो अपनी मातृभूमि की रक्षा और जनता के स्वाभिमान के लिए आत्मबलिदान करने वाले पहले ऐतिहासिक बालक थे। उनका बलिदान उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और सामाजिक न्याय की प्रतीक बन गया।

पंथ्या दादा (Panthya Dada)

जन्म और प्रारंभिक जीवन

पंथ्या दादा का जन्म 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के सुमाड़ी गांव में हुआ था। उनका बचपन संघर्षों से भरा था। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद वे अपनी बहन के ससुराल फरासू गांव में रहने लगे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

उस समय गढ़वाल 52 छोटे-छोटे गढ़ों में बंटा हुआ था, और राजा मेदिनी शाह के शासनकाल में सुमाड़ी गांव के लोग कर-मुक्त थे। यह विशेषाधिकार राजा अजयपाल द्वारा काला जाति के ब्राह्मणों को दिया गया था, जो मां गौरा के उपासक थे। लेकिन यह छूट अन्य दरबारियों को पसंद नहीं आई और उन्होंने राजा को उकसाकर सुमाड़ी गांव पर कर लगाने के लिए मजबूर कर दिया।

अन्यायपूर्ण कर और जनता का संघर्ष

राजा ने अपने वजीर सुखराम काला से परामर्श कर गांव वालों पर राजकीय करों और श्रम कर (दूणखेणी) लगाने का आदेश दिया। गांववासियों ने इसे मानने से इंकार कर दिया, जिससे नाराज होकर राजा ने आदेश दिया कि हर दिन एक व्यक्ति की बलि (“रोजा”) दी जाए। यह अन्यायपूर्ण निर्णय गांववालों के लिए असहनीय था।

पंथ्या दादा का बलिदान

जब पहली बार बलि देने के लिए पंथ्या के बड़े भाई के परिवार का नाम चुना गया, तब पंथ्या फरासू गांव में अपनी बहन के साथ थे। उन्हें स्वप्न में मां गौरा के दर्शन हुए, जिन्होंने सुमाड़ी गांव पर आए संकट की जानकारी दी।

पंथ्या दादा ने तुरंत गांव लौटकर अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का निश्चय किया। उन्होंने जनता को संघर्ष करने और स्वाभिमान की रक्षा करने की प्रेरणा दी। अगले दिन उन्होंने मां गौरा के चरणों में प्रणाम कर अग्निकुंड में आत्मदाह कर दिया

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पंथ्या दादा का प्रभाव और परंपरा

उनके बलिदान के बाद उनकी चाची भद्रा देवी और बहुगुणा परिवार की एक कन्या ने भी आत्मदाह कर दिया। इस घटना से राजा मेदिनी शाह भयभीत हो गए और उन्होंने अगले तीन दिनों के लिए “रोजा” को स्थगित कर दिया। इसके बाद जब राजा को राजतांत्रिकों से परामर्श मिला कि उनकी परेशानियां पंथ्या दादा की आत्मा को शांति न मिलने के कारण हो रही हैं, तो उन्होंने सुमाड़ी गांव में विधिवत पूजा की शुरुआत की

आज भी पूस मास में उत्तराखंड के सुमाड़ी गांव में पंथ्या दादा की पूजा श्रद्धा और सम्मान के साथ की जाती है।

लोकगाथाओं में पंथ्या दादा

लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने अपने गीतों में पंथ्या दादा को अमर कर दिया है:

जुग जुग तक रालू याद सुमाड़ी कू पंथ्या दादा।

पंथ्या दादा (Panthya Dada) FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

1. पंथ्या दादा कौन थे?

उत्तर: पंथ्या दादा उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के सुमाड़ी गांव के एक वीर बालक थे, जिन्होंने अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हुए आत्मबलिदान दिया।

2. पंथ्या दादा का बलिदान क्यों दिया गया?

उत्तर: राजा मेदिनी शाह द्वारा लगाए गए अन्यायपूर्ण करों और “रोजा” जैसी अमानवीय प्रथा के विरोध में उन्होंने आत्मदाह किया।

3. पंथ्या दादा की पूजा कहाँ होती है?

उत्तर: उत्तराखंड के सुमाड़ी गांव में हर साल पूस के महीने में उनकी पूजा की जाती है।

4. पंथ्या दादा की कहानी का मुख्य संदेश क्या है?

उत्तर: यह कहानी अन्याय के विरुद्ध संघर्ष, स्वाभिमान की रक्षा और सामाजिक एकता का संदेश देती है।

5. क्या पंथ्या दादा का जिक्र लोकगीतों में मिलता है?

उत्तर: हाँ, प्रसिद्ध लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी और कई अन्य कलाकारों ने उनके बलिदान को अपने गीतों में जीवंत किया है।

पंथ्या दादा का बलिदान सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि वीरता और स्वाभिमान की प्रेरणा है। उनका बलिदान उत्तराखंड की धरोहर है और उनकी स्मृति आज भी गढ़वाल की धरती पर श्रद्धा और सम्मान के साथ जीवित है।

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