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शहीद को ये कैसा सम्मान..? 300 चीनी सैनिकों को मारने वाले जसवंत सिंह के बारे में यह पढ़ें

जसवन्त सिंह

 

राइफलमैन जसवन्त सिंह | उत्तराखंड का वो जवान जो कहने को तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में शहीद हो गया था, लेकिन शहीद होने के बाद भी वो करीब 40 साल तक देश की सीमा पर तैनाती देता रहा ।  देश की सेना के इतिहास में एकमात्र ऐसा जवान जिसका परमोशन शहीद होने के बाद कई सालों तक होता रहा। वो जवान जिसके बारे में मान्यता रही कि वह शहीद होने के बाद भी सीमा पर तैनात रहकर ड्यूटी करता था और जिसके सम्मान में सेना ने अरूणाचल में जसवन्त गढ किला स्थापित किया।  यही नही वो जवान जिसका मुरीद बाॅलीवुड हुआ तो भारी बजट से सेवन्टी टू हाॅवर्स नाम से मूवी बन गई लेकिन हमारी आज ये कहानी केवल उसकी उसकी वीरता की नही बल्कि उसको उसकी जन्मभूमि में सम्मान दिलाने की है।

rifle man jaswant singh village
जी हाँ , ये चन्द ईटो व चूने से पूता हुआ स्मारक, भारत के एक वीर शहीद का सम्मान है,जरा नजर डालिए इस बिना मूर्ति लगे स्मारक पर, जो एक महान शहीद को श्रद्धाजलि दे रहा है। गौर से पढिए स्मारक मे लगे इस सिलापट को जो देवभूमि उतराखंड के एक जांबाज की वीरता की कहानी बंया कर रहा है।

उतराखंड केे पौड़ी जिले के बाड़ियूँ गांव से ये तस्वीरें उसी वीर सैनिक जसवन्त सिंह के स्मारक की है जो अपनों के बीच बेगाने हो चुके हैं। बाड़ियूं गांव में अगस्त 1941 में पैदा हुए राइफलमैन जसवन्त सिंह, मात्र साढे 17 साल की उम्र में भारतीय सेना के र्फोथ गढ़वाल में भर्ती हो गये थे। 1962 भारत-चीन युद्ध में इस जांबाज सिपाही ने जो बहादुरी के करतब दिखाए वह वीरता की मिशाल देने वाली कहानी बन गई।




1962 के भारत चीन युद्ध में जब अरूणाचल प्रदेश के बार्डर पर भारतीय सेना के कई जवान शहीद हो गये थे तब अकेले जसवन्त सिंह ने  इस युद्ध में ऐसा मोर्चा खड़ा किया कि चीनी सेना 72 घन्टे तक इस अकेले राइफलमैन से भिड़ती रही। इस तीन दिन के युद्ध में चीन के अधिकारिक रूप से 300 से ज्यादा सैनिक मारे गये और तीन दिन तक अलग अलग पहाड़ीयांे से फायर का मोर्चा अकेले सम्भाल रहा था 18 साल का जसवन्त। जब तीन दिन बाद राइफलमैन जसवंत सिंह वीरगति को प्राप्त हो गये तो उनके बारे में कई किस्से सामने आये जिसमें एक थी उनकी प्रेम कहानी।

कहानी ये प्रचलित है कि सेना के पीछे हटने के आदेश के बावजूद वह 10000 फीट की ऊंचाई पर मोर्चा संभालते रहे. ओर चीनीयों को एक कदम आगे नहीं बढने दिया। कहा जाता हे कि वहाॅ उनकी मदद दो लडकियों सेला और नूरा ने की थी। लेकिन उनको राशन पहुँचाने वाले एक व्यक्ति ने चीनियों से मुखबरी कर दी कि चैकी पर वह अकेले भारतीय सैनिक बचे हैं. यह सुनते ही चीनियों ने वहाँ हमला बोल दिया। एक अकेले सैनिक द्वारा 300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मारने पर चीनी कमांडर इतना नाराज था कि उसने जसवंतसिंह का सिर धड़ से अलग कर दिया और उनके सिर को चीन ले गया. लेकिन कुछ दिनों बाद जब चीनी सेना ने जसवन्त सिंह का सिर लौटाया और सम्मान  उसकी वीरता की पूरी गाथा भी भारत को दी।




 इस युद्ध मेें शहीद हुए जसवन्त सिंह को आज भी उनकी वीरता के लिए अलग अलग तरह से सम्मान दिया जाता है। इस अमर शहीद के सम्मान में अरुणाचल प्रदेश के तवांग में बाबा जसवंत सिंह नाम से मंदिर बना हुआ है। उनके नाम पर एक स्थानीय क्षेत्र का नाम जसवंतगढ़ रखा गया है जहां उनका किला भी स्थापित है। वे एकमात्र ऐसे जवान रहे जिसे मौत के बाद भी प्रमोशन मिलता रहा। कहा जाता है कि उनकी आत्मा आज भी उस क्षेत्र की रक्षा करती है और अपनी ड्यूटी देती है। हालांकि 2018 में 40 साल की सर्विस के बाद सेना ने जसवन्त सिंह को सैनिक तौर-तरीकों के साथ रिटायर किया। आज भी देश के लोगों के बीच मान्यता है कि बाबा जसवंत सिंह बॉर्डर पर देश की रक्षा करते हैं।
rifle man jaswant singh village

जहाॅ देश के एक हिस्से में राइफलमैन जसवन्त सिंह के नाम पर एक पूरे क्षेत्र का नाम रखा गया है वहीं इस वीर सैनिक से जुड़ा एक पहलू ये भी है कि उनके गांव में उनकी मूर्ति लगा स्मारक भी नही है। जसवन्त सिंह का जन्म जिसघर में हुआ उसमें आज पेड़ उग आये हैं। ये तस्वीरें उसी घर की है जो आज खण्डहर नजर आता है। यहाॅ उनकी याद में एक स्मारक तो बनाया गया लेकिन वो भी खानापूर्ति से कम नहीं लगता। आज पौड़ी का बाड़ियूं गांव पलायन से खाली हो चुका है और जो ग्रामीण बचे भी है वो बेबस ही नजर आते है। इलाके के ग्राीमणों के घर पर भले ही जसवन्त सिंह की पूजा घर के मन्दिर में होती है लेकिन इतने साल बीत जाने के बाद भी शासन प्रशासन इस वीर सैनिक को उसकी धरती में उचित स्थान नही दे पाया। जिसपर ग्रामीणों की कई शिकायतें है, किसी का कहना है कि उनके नाम पर कई योजनाओं को केवल कागजों मे पूरा किया गया है तो किसी की शिकायत ये भी है कि गांव में दो साल पहले शुरू हुई लघु जल विद्युत परियोजना को जसवन्त सिंह के नाम पर रखना भी सरकार ने उचित नही समझा। वहीं बिना मूर्ति के जिस स्मारक को गांव में स्थापित किया गया है उसका सिलापट पर खुद उतराखंड के वर्तमान पर्यटन मन्त्री सतपाल महाराज का नाम अकिंत है लेकिन उस पर इस शहीद की मूर्ति तक मौजूद नही है।देश के लिये अपनी जान देने वाला, जिसे सेना में सम्मान की नजर से देखा जाता है। वह राइफल मैन जसवन्त सिंह अपने ही जन्मभूमि में बेगाना हुआ है। न तो जन प्रतिनिधियों को इस बात की कोई प्रवाह है ओर न ही प्रशासन को। वहीं जसवन्त सिंह तो वैवाहिक जीवन से पहले ही शहीद हो गये थे लेकिन  उनके अन्य परिजन अब गांव में नही रहते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि उनके नाम पर खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है लेकिन उसके लिये भी सरकार कोई मदद नहीं करती। स्थानीय लोग व ग्रामीण अपने स्तर पर पैसा एकत्र कर प्रतियोगिता आयोजित करवाते है।




शहीद वीर राइफलमैन जसवन्त सिंह की गाथा आज अमर हो चुकी है और जब हाल ही में आई हिन्दी फिल्म 72 हाॅवर्स से देश के बच्चे बच्चे तक जसवन्त सिंह रावत की वीरता की कहानी पहुंची तो  उनके गांव की पड़ताल करना जरुरी था। हम जब बाड़ियूं गांव पहुंचे तो उनकी वीरता की कहानी के किस्से हर किसी के जुंबा पर थे लेकिन उनका घर, उनका स्मारक देखकर यही महसूस हुआ कि भारतीय सेना के  जिस वीर सैनिक के नाम पर हर किसी का सीना गर्व से ऊंचा होता उसे ये कैसा सम्मान और जिन शहीद सैनिकों के नाम पर समय समय पर हमारी सरकार दुहाईयां देती है उन्हें ये कैसा सम्मान।

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