दीपक बिष्ट
भारतीय सेना का जब भी जिक्र आता है उसमे गढ़वाल राइफल्स का नाम सम्मान से लिया जाता है।
ये दुनिया की एक मात्र रेजिमेंट है जिसने विश्व के जिस कोने भी युद्ध लड़ा अपने अदम्य सहस और बलिदान से सम्मान ही कमाया।
आज पाकिस्तान जितना भी फड़फड़ाये उसकी सेना भी जानती है कि जब भी भारतीय सेना की ये टुकड़ी मैदान में उत्तरी है दुश्मनों ने घुटने टेके हैं।
ये तो सिर्फ एक टुकड़ी का सहस और बल है अगर भारतीय सेना के सभी टुकड़ियों के बारे बताएंगे तो वीरता की कहानी से इतिहास के पन्ने भी काम पड़ जायेंगे।
आओ आपको गढ़वाल राइफल्स के वीरता की बाते संक्षिप्त रूप में सुनते हैं।
गढ़वाल राइफल्स का गठन 1887 में हुआ था और यह भारतीय सेना की सबसे पुरानी पैदल सेना रेजिमेंटों में से एक है।
विश्व युद्ध और 1947-48, 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों सहित विभिन्न युद्धों में भाग लेने के कारण, राष्ट्र की सेवा का इसका एक लंबा और विशिष्ट इतिहास रहा है।
रेजिमेंट ने कांगो, कंबोडिया और श्रीलंका सहित विभिन्न शांति मिशनों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
1999 के कारगिल युद्ध के दौरान, गढ़वाल राइफल्स ने पाकिस्तानी घुसपैठियों से कई रणनीतिक चोटियों पर कब्जा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें प्वाइंट 5203 भी शामिल था, जो दुश्मन द्वारा कब्जा की गई सबसे ऊंची चोटी थी।
रेजिमेंट की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है और इसे अपनी विशिष्ट वर्दी और संगीत के लिए जाना जाता है, जिसमें इसका प्रसिद्ध युद्ध नारा "जय बदरीविशाल लाल की जय!" है
रेजिमेंट का उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के साथ एक मजबूत संबंध है, और इसके कई सैनिक स्थानीय आबादी से लिए गए हैं।
गढ़वाल क्षेत्र में रेजिमेंट के कई प्रशिक्षण और भर्ती केंद्र हैं, जिनमें लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर भी शामिल है।
रेजिमेंट विभिन्न सामाजिक कल्याण गतिविधियों में भी शामिल रही है, जिसमें आपदा राहत प्रदान करना और क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल पहलों का समर्थन करना शामिल है।