Table of Contents
बसंती बिष्ट | Basanti Bisht
नाम | बसंती बिष्ट (Basanti Bisht) |
जन्म | ल्वॉणी गांव, जिला चमोली (उत्तराखंड) |
सम्मान | पद्मश्री (26 जनवरी, 2017) |
व्यवसाय | जागर गायिका |
बसंती बिष्ट की जीवन यात्रा | Basanti Bisht Life Story
जिस उम्र में तमाम महिलाएं खुद को घर की दहलीज तक समेट लेती हैं, उस उम्र में उस ग्रामीण महिला ने तमाम वर्जनाएं तोड़कर हारमोनियम थामा और रियाज शुरू किया। उस महिला ने पुरुषों के एकाधिकार और रूढ़ियों को तोड़ते हुए उत्तराखंड की पहली प्रोफेशनल महिला जागर गायिका होने का गौरव हासिल किया। 63 साल की बसंती बिष्ट पद्म श्री सम्मान से सम्मानित होने वाली उत्तराखंड की ना सिर्फ अकेली कलाकार हैं, बल्कि इकलौती शख्सियत भी हैं।
बसंती बिष्ट ने ना सिर्फ नंदादेवी के जागर को विश्व पटल पर पहचान दिलाई बल्कि अब तक पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे से सुनकर जो जागर उत्तराखंड समाज में चलती आ रही थी, उसको उन्होने पहली बार किताब का रूप दिया। ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिये इसे संभाल कर रखा जा सके। बंसती बिष्ट (Basanti Bisht) की पहचान सिर्फ पारंपरिक वाद्य यंत्र डौंर (डमरू) बजाने और भगवती के जागर की असाधारण आवाज के तौर पर ही नहीं है, बल्कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उनके लिखे गीत आज भी खूब पसंद किये जाते हैं।
बंसती बिष्ट और माँ नंदा का सम्बन्ध
बसंती बिष्ट उत्तराखंड के चमोली जिले के ल्वॉणी गांव की रहने वाली हैं। पांचवीं क्लास तक पढ़ाई करने वाली बसंती बिष्ट उस गांव की रहने वाली हैं जहां बारह साल में निकलने वाली नंदा देवी की धार्मिक यात्रा का अंतिम पढ़ाव होता है। कहते हैं कि ये एशिया की सबसे लंबी पैदल यात्रा होती है।
चमोली जिले के बधाण इलाके को नंदा देवी का ससुराल माना जाता है। इसलिये यहां के लोग नंदा देवी के स्तुति गीत, पांडवाणी और जागर खूब गाते हैं। यहां के लोगों का मानना है कि नंदा देवी उत्तराखंड की देवी ही नहीं बल्कि बेटी भी हैं। इस कारण जब वो हर 12 साल बाद अपने मायके आती हैं तो उनका पूरे सम्मान के साथ आदर किया जाता है और उनके आगमन और विदाई पर अनेक गीत और जागर गाये जाते हैं। ये चलन पीढ़ियों से चल रहा है।
माँ ने सिखाया जागर और स्तुति गीत
बसंती बिष्ट को जागर की शुरूआती शिक्षा अपनी मां बिरमा देवी से मिली और वो उनको ही अपना गुरू मानती हैं। बिरमा देवी खुद बहुत अच्छा जागर गाती थीं। बसंती बिष्ट ने एक बार बताया था कि मैंने बचपन से ही अपनी मां को नंदा देवी के स्तुति गीत और जागर गाते हुए सुना था। इस वजह से वो सब मुझे भी याद हो गया। लेकिन मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं इसे इस तरह से आगे ले जा पाऊंगी।
पति ने दिया पूरा साथ
बसंती बिष्ट (Basanti Bisht) की शादी करीब 19 साल की उम्र में रंजीत सिंह बिष्ट से हुई थी। उनके पति सेना में थे। इस कारण वो भी उनके साथ कई शहरों में रहीं। एक बार जब उनके पति की पोस्टिंग जालंधर में हुई तो उनके घर के पास एक तमिल महिला रहती थी। जो चुतुर्थ श्रेणी की कर्मचारी थी, वो अपनी लोक संस्कृति से जुड़े गाने गाती थी। इस कारण जिस घर में वो काम करती थी वहां के बच्चों को वो गाना भी सीखाती थीं। ये देख बसंती ने सोचा कि वो भी अपनी लोक संस्कृति के गीतों को गाना जानती हैं। जिसके बाद उन्होने अपने पति से इस बारे में बात की। पति से अनुमति मिलने के बाद उन्होने चंडीगढ़ के प्राचीन कला केन्द्र से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली ताकि वो गायन को बारीकियों को सीख सके।
राज्य आंदोलन के लिए गाए कई गीत
संगीत की शिक्षा हासिल करने के बाद बसंती बिष्ट (Basanti Bisht) का सारा ध्यान अपने बड़े होते बच्चों पर आ गया और तब तक उनके पति भी सेना से रिटायर होने के बाद देहरादून आकर रहने लगे। साल 1997 में ल्वॉणी गांव में ग्राम प्रधान के चुनाव हुए जिसमें बसंती बिष्ट विजयी रहीं और इस तरह वो पहली महिला ग्राम प्रधान बनी। कुछ समय बाद अलग उत्तराखंड राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी।
बसंती बिष्ट ने इस आंदोलन में बढ़-चढ कर हिस्सा लिया। स्थानीय लोगों को जागरूक करने और आंदोलन मजबूत करने के लिए उन्होने ना सिर्फ कई गाने लिखे बल्कि उनको अपनी आवाज भी दी। इस तरह एक ओर जब उनके गाये गानों से लोगों में जोश पैदा होता, तो वहीं दूसरी ओर बसंती बिष्ट को इससे ऊर्जा और उत्साह मिलता ,तब बसंती बिष्ट ने तय किया कि क्यों ना अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिये कुछ किया जाये। इसके लिए उन्होने तय किया कि वो ‘मां नंदा देवी’ के जागर गाना शुरू करेंगी जिसे वो बचपन से सुनते आ रही थीं। हालांकि नंदा देवी की जागर कहीं भी लिखी हुई नहीं है और लोग एक पीढ़ी से सुनकर दूसरी पीढ़ी को सुनाते हैं। इस जागर में ‘मां नंदा देवी’ की कहानी को गाकर सुनाया जाता है।
माँ नंदा के गीतों को पिरोया एक किताब में
बसंती देवी ने सबसे पहले जागर के उच्चारण में जो कमियां थीं उनको सुधारना शुरू किया। इसके बाद ‘मां नंदा देवी’ के जागर को किताब की शक्ल में पिरोया और उसे अपनी आवाज में गाया। उन्होने इस किताब को नाम दिया ‘नंदा के जागर सुफल ह्वे जाया तुमारी जातरा’। इस किताब के साथ उन्होने नंदा देवी की स्तुति को अपनी आवाज में गाकर एक सीडी भी तैयार की जो किताब के साथ ही मिलती है। उत्तराखंड में जागर को हमेशा पुरुष प्रधान ही समझा जाता था। इसमें मुख्य गायक पुरुष ही होता था और अगर कोई महिला इसे गाती थी तो सिर्फ जागर में साथ देने का काम करती थी।
जब बसंती बिष्ट (Basanti Bisht) ने जागर गाना शुरू किया तो लोगों ने इसका खूब विरोध किया लेकिन जैसे-जैसे वो प्रसिद्ध होती गई, लोग उनको स्वीकार करते गये। आज वो सिर्फ जागर ही नहीं गाती हैं बल्कि मांगल, पांडवानी, न्यौली और दूसरे पारंपरिक गीत भी गाती हैं। पिछले 20 सालों से बसंती बिष्ट ‘मां नंदा देवी’ के जागर को पारम्परिक पोशाक में ही गाती हैं। इसके लिए वह स्तुति के समय गाये जाने वाले ‘पाखुला’ को पहनती हैं। ‘पाखुला’ एक काला कंबल होता है जिसे पहनने में लोगों को झिझक महसूस होती थी,लेकिन वो इसे बड़े सम्मान के साथ पहनती हैं।
बसंती कहती हैं कि जब मैंने जागर गाना शुरू किया तो मैंने निश्चय किया कि मैं इसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करूंगी और जागर को जिस पहनावे और अंदाज के साथ गाया जाता है मैं भी उसी तरह इसे गाऊंगी। यही वजह है कि अब तक मैंने जितने भी जागर गाये हैं वो पारंपरिक पहनावे और मौलिक धुनों के ही साथ गाये हैं। जागर एक ऐसी विधा है जिसे कम से कम वाद्ययंत्रों के साथ गाया जाता है। इसमें डौंर (डमरू), थाली, हुड़का जैसे वाद्ययंत्र इस्तेमाल होते हैं। जागर गाते समय डौंर (डमरू) को बसंती बिष्ट खुद बजाती हैं। ये परंपरा आगे भी बनी रहे इसके लिये वो कई दूसरी महिलाओं को जागर भी सीखाती हैं।
पद्म श्री से किया गया सम्मानित
उत्तराखंड की लोकगीतों और पोशाकों को विशिष्ट पहचान दिलाने के लिए बसंती बिष्ट को 26 जनवरी 2017 को उन्हें भारत सरकार ने पद्म श्री से सम्मानित किया गया। इसके अलावा बसंती बिष्ट को मध्यप्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय देवी अहिल्या सम्मान 2016-17 और उत्तराखंड सरकार द्वारा तीलू रौतेली सम्मान से भी सम्मानित किया गया है।
वर्तमान समय में बसंती बिष्ट न सिर्फ उत्तराखंड की लोकविधा को जीवित रखने में अहम योगदान दे रही है बल्कि अन्य महिलाओं को भी प्रेरित करने का काम कर रही हैं। बसंती बिष्ट उत्तराखंड में महिला सशक्तिकरण का वह नायब हीरा है जिसने जागर गायन जैसे पुरषवादी विधा को गाकर समाज की सोच को बदला है।
इसे भी पढ़ें –
- गढ़वाल के चितेरे कवि चंद्र कुवंर बर्त्वाल
- उत्तराखंड लोकगायिकी के नायाब सितारे चंद्र सिंह राही
- उत्तराखंड में शराब मुक्ति की प्रेणता टिंचरी माई का जीवन वृतांत
- माधो सिंह भंडारी के छोटा चीनी युद्ध में सर्वश्व बलिदान की कहानी
अगर आपको Basanti Bisht से जुडी यह यह पोस्ट अच्छा लगा तो इसे शेयर करें साथ ही हमारे इंस्टाग्राम, फेसबुक पेज व यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें।
0 thoughts on “ बसंती बिष्ट : उत्तराखंड की प्रथम जागर गायिका | Basanti Bisht”