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Madho Singh Bhandari: माधो सिंह भंडारी की जीवनगाथा

माधो सिंह भंडारी Madho Singh Bhandari

Madho Singh Bhandari

माधो सिंह भंडारी (Madho Singh Bhandari) उत्तराखंड के इतिहास में वीरता और बलिदान के प्रतीक हैं। 17वीं शताब्दी में गढ़वाल राज्य के योद्धा और सेनापति रहे माधो सिंह ने अपनी असाधारण वीरता से न केवल दुश्मनों को परास्त किया, बल्कि अपने राज्य और लोगों की रक्षा के लिए अतुलनीय बलिदान दिया। उनकी सबसे प्रसिद्ध गाथा टिहरी के मलथा गाँव से जुड़ी है, जहाँ उन्होंने टिहरी गढ़वाल में पानी की समस्या दूर करने के लिए अपने पुत्र का बलिदान देकर एक भव्य नहर (मालथा गूल) बनवाई। उनके पराक्रम, देशभक्ति और जनता के प्रति समर्पण ने उन्हें उत्तराखंड की लोकगाथाओं और जनमानस में अमर बना दिया है।

माधो सिंह भंडारी | Madho Singh Bhandari

माधो सिंह भंडारी का जन्म 

 गढ़राज्य उत्तराखण्ड का ये नैसर्गिक भू-भाग जितना खूबसूरत है उतनी ही महान है इसके इतिहास के पृष्ठों पर लिखी अमर वीरों की कहानी है। उन्हीं में एक वीर है माधो सिंह भंडारी। इनका जन्म सन 1585 के आसपास उत्तराखंड राज्य के टिहरी जनपद के मलेथा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम सोणबाण कालो भंडारी था।

माधो सिंह भंडारी की शौर्यगाथा

माधो सिंह भंडारी के बारे में कहते हैं कि इनके धनुष की टंकार मात्र से पर्वत तक काँपने लगते थे। इनके शौर्य को देखकर शत्रु सेना में भी डर और खौफ का माहौल रहता था। माधो सिंह भंडारी गढ़राज्य के वीरों का शौर्य का वो परिचय है जिसके चर्चे मुगलों से लेकर तिब्बत राजाओं व गोरखाओं के बीच फैले हुए थे।

महीपति शाह के सेनापति के रूप में तीन बार तिब्बत आक्रमण

माधो सिंह भंडारी ने अपने जीवन काल में गढ़राज्य के सेनापति के तौर पर महीपत शाह, रानी कर्णवती और पृथ्वीपत शाह को अपनी सेवाएं दी। ऐसे वीरों के कारण ही गढ़राज्य मुगलों, गोरखाओं और कुमाऊँ शासकों से लोहा लेने का साहस करता था। श्याम शाह जो बलभद्र शाह के बेटे थे।
इनकी मृत्यु के बाद उनके चाचा महिपत शाह ने गढ़राज्य का सिहांसन संभाला। महिपत शाह के समय गढ़राज्य ने तीन बार तिब्बत पर आक्रमण किया। जिसके कारण उन्हें गर्वभंजन की उपाधि से नवाजा गया था।

श्याम शाह जो बलभद्र शाह के बेटे थे। इनकी मृत्यु के बाद उनके चाचा महिपत शाह ने गढ़राज्य का सिहांसन संभाला। महिपत शाह के समय गढ़राज्य ने तीन बार तिब्बत पर आक्रमण किया। जिसके कारण उन्हें गर्वभंजन की उपाधि से नवाजा गया था।




महिपत शाह जब दूसरी बार तिब्बत आक्रमण पर गए तो उनकी सेना को तिब्बत की सेना ने बीच में ही रोक दिया था। फिर दोनों सेनाओं के बीच छोटा चीनी (तिब्बत में) भंयकर युद्ध हुआ। गढ़राज्य की तरफ से सेना की कमान वीर माधो सिंह भंडारी संभाल रहे थे। इस भीषण युद्ध में एक वक्त ऐसा आया जब माधो सिंह भंडारी को शत्रुओं ने चारों ओर से घेर दिया। मगर उन्होंने समर्पण नहीं किया और शत्रुओं से अकेले ही तुमुल युद्ध में भिड़ गए।
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शत्रुओं के कई घाव खाने के बाद उनका शरीर साथ नहीं दे रहा था। मगर इस घायल अवस्था के बाद भी उनके मन में बस एक ही बात थी कि अगर वे मर गए तो उनकी सेना का मनोबल टूट जाएगा और ऐसा होने पर गढ़ राज्य की महिमा उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।
यही सोचते हुए उनके मन में एक विचार कौंधा और अपने अंगरक्षकों से उनके शरीर को आग में हल्का भूनकर पालथी अवस्था में पालकी में बिठाने को कहा। क्योंकि मरने के बाद शरीर अकड़ जाता है।

 

माधो सिंह भंडारी की मृत्यु

उनके अंगरक्षक अपने वीर सेनापति का ऐसा सुनकर दुखी हुए। मगर वे उनकी आदेश से बंधे थे इसलिए दुखी मन से उन्होंने उनके चैतन्य शरीर को आग में हल्का भूनकर पालथी मुद्रा में पालकी में बिठाकर युद्ध के बीचों बीच रख दिया।
गढ़वीरों ने जब अपने वीर सेनापति के बलिदान को देखा था तो उनके शरीर में अक्षुण्य साहस कौंध पड़ा और गढ़राज्य के हूंकार लेते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े। माधो सिंह भंडारी सन 1635 में मात्र पचास वर्ष की आयु में छोटी चीन (वर्तमान हिमाचल) में वीरगति को प्राप्त हुए।

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वीर माधो सिंह भंडारी के लिए ये पंक्तियाँ उनके शौर्य साहस और बलिदान को दर्शाती हैं।

“एक सिंध रैंदो बण एक सिंध गाय का
एक सिंध माधो सिंह और सिंध काहे का ॥”

इसके अलावा माधो सिंह भंडारी को बस उनकी वीरता और शौर्य के लिए याद नहीं किया जाता बल्कि अपने क्षेत्र मलेथा के लोगों के लिए सिंचाई के रुप में गूलों का निर्माण कर और इस कल्याणकारी अभिलाषा में अपने पुत्र की बलि देकर उनके सर्वस्व बलिदान को भी जाना जाता है। माधो सिंह भंडारी जैसे अमर गाथा उत्तराखण्ड के इस हिमवंत प्रदेश को युगों-युगों तक यश और कीर्ति देता रहेगा।

 


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