दिल, दिमाग और गुर्दे हर इंसान में एक-एक ही दिया है। दिल और दिमाग की बात करें तो आपको लगेगा ये तो नार्मल सी बात है मगर गुर्दे पढ़कर आपको मेरी इस पोस्ट को अंत तक पढ़ने की शायद इच्छा न हो। वो इसलिए क्यूंकि हमे बचपन से अच्छा कहना लिखना और पढ़ना ही सिखाया गया है। और गुर्दे तो सुनने में ही अजीब लगता है। कई लोगों को तो पता ही नहीं होगा गुर्दा क्या बला है। पर इसके बावजूद भी सवाल ये उठता है कि हम उटपटांग चीजें क्यों पसंद करते हैं ?
ये सवाल एक ऐसी पहेली है जिसका जवाब किसी के पास नहीं होता। हम कोई चीज क्यों कर रहें हैं या क्यों करते हैं? इसका जवाब जानने के लिए शायद एक रोज का इन्तजार किया जाए। वैसे ये एक रोज की ही कहानी है। तो शुरू करते हैं उस रोज की कहानी।
बात उस दिन की जब सूरज वक्त पर उगा था
कहने को तो सूरज हर दिन तय समय पर उगता है। पर मेरी मानो तो मेरे लिए ये बात झूठी है। क्योंकि अगर सूरज हर रोज तय समय पर उगा होता तो बचपन वाले सूरज और जवानी वाले सूरज में फर्क क्यों है भला ? तब जब मर्जी तब सुबह हो जाय करती थी। पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गयी सूरज के उगने का समय भी बदलता गया।
जैसे जब दसवीं में था तो सूरज 4 बजे उग जाया करता था। ग्यारवहिं में सूरज फिर 5 – 6 बजे के बीच उगता था। मगर जब बारहवीं में गया तो सूरज ने 3 बजे सुबह उगना शुरू कर दिया। वो कहते हैं न “जब जागो तब सवेरा ” बस वैसी ही कुछ बात है। बड़ी बातें हैं जल्दी समझ नहीं आती उम्र खपाना पड़ता है।
खैर मैं फिर भटक गया, मैं आजकल इसलिए भी नहीं लिखता क्योंकि अक्सर मुद्दे से भटकने की आदत हो गयी है। पिछले महीने मैं किसी के लिए ब्लॉग लिख रहा था तो उसकी शिकायत यही रहती थी कि मैं मुद्दे को ऊपर नीचे कर देता हूँ। अब उन्हें कैसे समझाऊं जिन सरकारी योजनाओं पर वो ब्लॉग लिख रहा था उसका 1 प्रतिशत भी मुझे लाभ नहीं मिला तो भटकना तो तय था ना।
पर वो बाद की बाद है, हम सिर्फ उस दिन की बात करेंगे जिस दिन सूरज तय समय पर उगा था। मुझे तारीख याद है ये इसी महीने 10 व 11 तारीख थी जब ये हादसा हुआ। सूरज उगा मैं भी उठा और फिर हर दिन की तरह सुबह ही एक ब्लॉग “मुख्यमंत्री चिरनजीवी योजना पर लिख डाला। ये काम खतम कर ही रहा था कि मैसेज आया “गुप्तकाशी चलेगा ” मन किया मना कर दूँ फिर न जाने क्यों हाँ कर दी।
हम “हाँ” और “ना” कुछ सोच के करते हैं या यूँ ही बस तुक्कों में फैसले लेते हैं। मुझे तो लगता है तुक्कों में ही लेते हैं।
बात तय हुई कि 1 बजे से पहले पहले निकलेंगे क्यूँकि रुद्रप्रयाग तहसील से थोड़ा पहले चारधाम महामार्ग परियोजना का काम चल रहा है। तो 1 बजे बाद फिर मार्ग बंद होना है। खैर हम चल दिए। अरे हाँ उस दिन मैं यूट्यूब के लिए भी वीडियो बना रहा था , 100 रूपये एक फालतू सी वीडियो के चक्कर में जो गवाएं थे। ये काम भी क्यों किया ये भी नहीं जनता।
खैर हम निकल गए मैं और मेरे बचपन के यार मधुकर और रीना। ये जानते हुए कि वे दोनों इस ब्लॉग को मुश्किल ही पढ़ेंगे फिर भी लिख रहा हूँ। वो क्या और भी नहीं पढ़ेंगे। पढ़ते होते तो मेरी अमेजन पर डाली किताब किसी पढ़ने वाले का इन्तजार नहीं करती। ये सब लिखना कितना मुश्किल होता है। काश समझा पाता। कमेंट करना आसान है मगर दिमाग में एक आईडिया को कहानी की शक्ल देना थोड़ा मुश्किल। और मैंने वो कहानी इसलिए भी लिखी क्यूँकि मैं उन दिमागी उपज के लिए ईमानदार बनना चाहता था। बाकि कोई पढ़ता है या नहीं क्या फर्क पड़ता है।
वैसे ये कहने की बात है फर्क तो पड़ता है।
खैर हम तीनों निकले मधुकर की कार में। वो कार जो उसने मुझे चलाने नहीं दी। गाने को फुल वॉल्यूम पर लगाकर गुप्तकाशी के लिए रवाना हुए। आधे घटें तो सब खूब बोले फिर सब चुप हो गए। ठीक गुजरे वक्त की तरह।
कभी कभी लगता है हम सब अपनी खामोशी में ही अपनी जिंदगी का जवाब ढूंढ़ते रहते हैं। जैसे मैं अपनी बात करूं तो मैं हर कहानी में अपनी जिंदगी का हिसाब लगता रहता हूँ। वहीँ कहीं कई सवाल खुद से पूछता हूँ और खुद ही सही सही जवाब भी लिखता रहता हूँ। ये जानते हुए कि ये सब बेमतलब – बेफिज़ूल की बातें हैं। भला किसे क्या मतलब बड़ी-बड़ी बातों से जब आज का दिन कैसे गुजरना है इसी बारे में सब सोच रहे हों।
हम गुप्तकाशी पहुचें। कुछ वक़्त वहीँ रहे। बढ़िया से रेस्टोरेंट में समोसा और चाय पी। फिर घर की और निकल गए। उस वक़्त शाम के 5 बज रहे थे। फिर अचानक दिमाग में ख्याल आया घर तो रोज जाते हैं। आज चलो रात चोपता बिताते हैं। फिर क्या इसी जोश में बिना घर वालों को बताए निकल गए चोपता।
बच्चे थोड़ी न है घर वाले नहीं समझते
चोपता की जाते जाते बातें भी अजीब सी हो रही थी। यही कि बच्चे थोड़ी न हैं जो हर बार घर वाले अपना ही हुकम बजाते रहते हैं। उम्र वो वाली तो है नहीं जब नाक में उंगली होती थी और वोही ऊँगली नाक से मुहं में बड़ी मासूमियत में चली जाती थी। वैसे सबने तो एक बार तो उस नमकीन स्वाद का आनंद लिया ही होगा। मुझे यकीन है।
खैर इसी बे सर पैर की बातों से हम चोपता की और बढ़ गए। ये जानते हुए कि साथ में एक लड़की भी है। हमे अजीब लगना चाहिए था, या उस लड़की के पेरेंट्स को ये सुनकर की साथ में दो लड़के हैं ये सुनकर अजीब लगना चाहिए था। पर लगा नहीं! मैं अपनी बात करूँ तो अपने घर वालों ये बताता कि साथ में एक लड़की है तो उन्हें तो जरूर बहुत अजीब लगता और ये अजीब कुछ ऐसा है कि आप भी उनसे फिर नजर नहीं मिला पाते। खैर भावनाओं को समझिये।
वैसे भी हमने बचपन में आधे से ज्यादा वक्त ये बिना सोच कर काटा कि जिस के साथ खेल रहे हैं वो लड़की है या लड़का तो फिर बड़े होने पर कुछ अजीब लगना ये तो गलत बात है। क्या ऐसा तो नहीं हम उसे लड़का समझते हैं। या वो लड़की है ही नहीं।
इसका जवाब है कि हमारी अच्छी जान पहचान है। जान पहचान होना और अच्छी जान पहचान होना दोनों में फर्क है। ये फर्क ऐसा है कि अच्छी जान पहचान वाली लड़की से भरी भीड़ में मिलकर बात करना नार्मल है। मगर जान पहचान वाली लड़की से बात करना और अच्छी खासी बातें करना ये असाधारण बात है।
तो मैं कहाँ था ? वो चोपता की ओर हम जा रहे थे। तभी शाम रात में बदलने लगी और जैसे-जैसे चोपता आया ठण्ड बढ़ने लगी। हम चले थे हाफ में ठण्ड लगनी ही थी। चोपता में जब गाड़ी रोककर चाय के लिए उतरे, तो तब जब जाके पता चला वाकेही कितनी ठण्ड थी। हमने चाय पी थोड़ा बातचीत की क्या करें ? यही ठहरें कि आगे गोपेश्वर जाएँ या घर।
गोपेश्वर की ओर
तय हुआ कि घर क्या जाना गोपेश्वर चलते हैं। 2 घंटे में पहुंच जायेंगे। फिर क्या हम आगे बढ़ें। उस सुनसान सड़क पर जहाँ कोई नहीं था शिवाय हमारे। उस संकरी सड़क का रास्ता भी डरावना था। बस गाडी की हेडलाइट की रौशनी और चारों ओर घना काला अँधेरा। इस सुनसान सड़क में अकेले गुजरते हुए भूत पिशाच की बातें न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। बातें हुई भूतों की कुछ देर तक फिर सब चुप हो गए।
कुछ छुटपुट बातें हुई फिर जाकर मंडल पहुंच गए। मंडल एक खूबसूरत जगह थी पर अफ़सोस अँधेरे में क्या दिखना था। हमे तो मंडल से भी आगे गोपेश्वर जाना था। अँधेरे में गोपेश्वर चमोली की धड़कन पहुंचे . पर ये क्या ? सारा सुनसान हुआ पड़ा था। कहीं कोई होटल नहीं खाने की जगह नहीं। और ये बस रात 9 बजे की ही बात थी। उसके बावजूद सब कुछ बंद पड़ा था। हमें लगा कहीं उत्तराखंड सरकार ने लॉक डाउन तो नहीं लगा लिया।
हम काफी देर तक रात भर भटके सड़क भी सुनसान थी। और काफी देर तक भटकने के बाद गूगल पर सर्च करके एक होटल को फोन मिला। भगवान की कृपा से कमरा मिला और फिर क्या हम वापस जहां से आए थे उसी तरफ बढ़ गए। एक होटल मिला दो कमरे लिए और रात में खाना खा कर तीनों सो भी गए। नींद जाके अगली सुबह खुली जब हम सुबह ब्रश और कोलगेट के लिए भटक रहे थे। पर अफ़सोस मिला नहीं। हमने तो सोच लिया था सारा गोपेश्वर ही दांत ब्रश नहीं करता शायद।
गोपेश्वर एक खूबसूरत जगह है। चारो तरफ से पहाड़ से बीच में मौजूद यह छोटा सा पहाड़ी शहर, उत्तराखंड के इतिहास को संजोये हुए है। कत्यूरी शासकों की कभी यह क्षेत्र केंद्र रहा और उसका साक्षी है गोपेश्वर में स्तिथ भगवान भोलेनाथ का गोपीनाथ मंदिर।
यह मंदिर उत्तराखंड के सभी मंदिरों में सबसे विशालतम मंदिरों में से एक है। इसकी वास्तुकला और सुंदरता देखते ही बनती है। इस मंदिर के प्रांगण में शिवजी का त्रिशूल है। जो विभिन्न धातुओं से मिलकर बना है। कहते हैं कि इस त्रिशूल पर कभी जंग नहीं लगता। यह त्रिशूल 5 मीटर ऊँचा है।
हम सुबह नहा धोकर शिवजी के इस स्थान पर पहुंचे और भगवान शिव के दर्शन किये। यह यात्रा जो अचानक बिना किसी कारण शुरू हुई थी भगवान गोपीनाथ के दर्शन करते ही जैसे इस यात्रा को नाम मिल गया और मन इच्छा थी कई वक्त से इस मंदिर को देखने की वह पूरी हो गयी।
कभी कभी कुछ यात्रायें हम क्यों करते हैं इसका हमारे पास कोई सीधा सीधा जवाब नहीं होता। मगर जब खत्म होकर हम वापस घर को लौटते हैं तो इन यात्राओं से जुडी कुछ यादें जरूर अपने साथ लेकर जाते हैं।
यह कुछ अलग ब्लॉग था। जिसके बीच-बीच में वीडियो डाल-डाल कर इस ब्लॉग को एक अलग अनुभव देने की कोशिश की गयी है। उम्मीद करता हूँ यह पसंद आएगा।
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