हमारा भारत देश अनेक विविधताओं वाला देश माना जाता है। यहां अलग-अलग समुदायों द्वारा व अलग-अलग राज्यों में विभिन्न प्रकार के पर्व मनाए जाते हैं। उत्तराखंड में भी देवी देवताओं व मनुष्य के प्रकृति के प्रति लगाव अनेकों पर्व या त्यौहार मनाए जाते हैं। उन्हीं में शामिल है उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में प्रसिद्ध हरेला पर्व या हरेला त्यौहार। आइये जानते हैं हरेला पर्व बारे में।
हरेला पर्व
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में हरेला पर्व सावन के महीने के पहले दिन मनाया जाता है, अर्थात हरेला पर्व से ही उत्तराखंड में सावन के महीने की शुरुआत होती है। मुख्यरूप से हरेला पर्व उत्तराखंड के लोगों द्वारा अच्छी फसल के लिए मनाया जाता है। यह त्यौहार उत्तराखंड के कुमाऊं एवं गढ़वाल दोनों की क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व के 9 दिन पहले से ही उत्तराखंड के लोग एक टोकरी में विभिन्न प्रकार के अनाज बोकर रख देते हैं, और यदि हरेला पर्व के दिन तक टोकरी में बहुत अच्छे से अनाज की पौध उग जाती है, तो माना जाता है कि इस वर्ष की फसल बहुत अच्छी रहेगी। साथ ही लोग टोकरी में जो अनाज बोते हैं, उसे काटने से पहले वे देवी-देवताओं/इष्टदेव की पूजा करते हैं और विभिन्न प्रकार के पकवानों, मिष्ठानों इत्यादि का भोग लगाते हैं।
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हरेला पर्व और प्रकृति की बीच सम्बन्ध
हरेला पर्व प्रकृति और मनुष्य के बीच अंतरसम्बन्ध बनाए रखने का एक अनूठा त्योहार है। मनुष्य को प्रकृति से जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह अनमोल है। प्रकृति ने हमें वन दिए, जहां विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं, उन जड़ी-बूटियों का प्रयोग कई तरह की दवाईयां बनाने में होता है। आपको बता दें कि भारत के 35 लाख लोगों की आजीविका वनों के माध्यम से चलती है।
उत्तराखंड में मनाए जाने वाला हरेला पर्व पर फल देने वाले पेड़ों और कृषि उपयोगी पौधों का पौधरोपण करने की भी मान्यता है। हरेला पर्व सिर्फ फसल इत्यादि के लिए नहीं बल्कि ऋतुओं के प्रतीक के रूप में भी प्रसिद्ध है। सावन महीने की शुरुआत में होने वाला हरेला पर्व कहीं-कहीं हर-काली के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि सावन/श्रावण मास भगवान शिव के लिए जाना जाता है और उन्हें बहुत प्रिय है।
शिव का वास भी पहाड़ों पर ही माना जाता है, विशेषकर उत्तराखंड के पहाड़ों पर जैसे केदारनाथ धाम इत्यादि। इसलिए भी उत्तराखंड के लोग हरेला पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। हरेला पर्व घर में सुख-शांति व समृद्धि लेकर आता है।
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हरेला पर्व पर गढ़वाल के इलाकों में गोबर में हरेला के कुछ पौध को चौखटों पर लगते हैं। वहीं विद्यार्थियों द्वारा इसे अपने किताबों के अंदर या फिर कानों पर लगाने की प्रथा भी विद्यमान है। वे लोग जो घर से दूर हैं और इस त्यौहार के दिन गांव नहीं आ पाते उन्हें लिफाफों में हरेला के कुछ तिनके भेज कर ईष्ट देवताओं के आश्रीवाद दिया जाता है।
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हरेला पर्व पर यह प्रमुख गीत गाया जाता है
जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।
यह गीत कुमाऊँनी भाषा में लिखा हुआ है। घर के बड़े इस गीत को गाते हैं और अपने से छोटे लोगों को आशीर्वाद देते हैं।
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