घुघुतिया त्यौहार या घुघुति त्यार
उत्तराखंड न सिर्फ अपनी सुन्दर पगडंडियों और बर्फीले शिखरों की तलहटी में विराजमान प्रभु के निवास स्थानों के लिए प्रसिद्ध है बल्कि यहां स्तिथ तीज त्यौहार और सांस्कृतिक विरासत भारत के अन्य भूखंड से अलग करती है। उन्हीं अंचलीय त्यौहारों में प्रसिद्ध है घुघुतिया त्यौहार। घुघुतिया त्यौहार को आम भाषा में घुघुति त्यार के रूप में मनाया जाता है।
घुघुतिया त्यौहार आमतौर पर मकर सक्रांति के दिन मनाया जाता है। इस दिन उत्तराखंड के कई स्थानों पर उत्तरायणी का त्यौहार भी मनाया जाता है। वहीँ पवित्र नदियों में स्नान की भी इस दिन महत्वता बताई जाती है। इस दिन उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में बागेश्वर व नैनीताल में क्रमशः बागेश्ववर का मेला और रानीबाग का मेला प्रसिद्ध है।
क्या किया जाता है इस दिन ?
घुघुतिया त्यौहार या मकर सक्रांति के दिन उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्रों में घुघुत नामक विशेष पकवान बनाया जाता है। घुघुत बनाने के लिए गेहूं के आटे को घी, शक़्कर और दूध के साथ गूंथ कर पतली-पतली श्लाखें बनाई जाती है जिसे कई बार दोहराकर मरोड़ दिया जाता है।
घुघुत के अतरिक्त इस मिश्रण से शक़्कर पारा या पक्षीयों का स्वरूप भी इससे बनाया जाता है। फिर इन्हे कुछ देर धूप में सुखा कर घी में ताल दिया जाता है। तलने के बाद इन्हे धागे में पिरोकर घर के प्रत्येक सदस्य को इसे दिया जाता है और विवाहित बेटियों को भी ये भेंट स्वरूप दी जाती है।
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बच्चे इस दिन घुघुत की माला गले में डाल “काले कौवे काले घुघुती माला खा ले” दोहराकर पक्षियों को आमंत्रण देते हैं। वहीँ पितृों के हिस्से का चढ़ावा घर की मुंडेर या ऊँचे स्थान पर रख दिया जाता है। जबकि उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्रों में इस दिन उड़द की दाल के पकोड़े और पुरी – सूजी बनाकर इस त्यौहार को मनाया जाता है।
घुघुतिया त्यौहार के पीछे की कहानी ?
घुघुतिया त्यौहार मनाने को लेकर दो मत है। पहले मत में बताया जाता है कि चंद वंश के राजा कल्याण चंद की संतान नहीं थी। पुत्र प्राप्ति के लिए रानी व राजा बागेश्वर में स्तिथ बागनाथ में भगवान शिव से पुत्र की प्राप्ति के लिए मन्नत मांगी। जिसके बाद भोलेनाथ की कृपा से राजा- रानी को पुत्र की प्राप्ति हुई।
रानी अपने पुत्र को अत्यंत प्रेम करती थी और प्रेम स्वरुप उन्होंने अपने पुत्र का नाम घुघुती रखा था। रानी ने घुघुति के गले में मोतियों की एक माला बनाई थी जिसे उनका पुत्र काफी पसंद करता था। फिर कभी जब घुघुती बाल हठ करता तो रानी पुत्र को माला कौवों को खिलाने की बात करती और आँगन में अन्न रख कर कौवों को बुलाती। और कहती काले घुघुती काले कौवे माला खा ले।
फिर रानी का पक्षियों को खाना रखना जैसे नित्य कर्म हो गया। और उनके आँगन में हमेशा एक कौव्वा उस रखे भोजन करने आ जाता। धीरे-धीरे रानी के पुत्र की भी उससे दोस्ती हो गयी। एक दिन सत्ता के लालच में राजा के मंत्री ने बालक का अपहरण कर उसे जंगल में ले गया और बालक को मारने का प्रयास करने लगा।
पर धीरे-धीरे वहां कई कौवे इकट्ठा हो गए और बालक को छुड़ाने के प्रयास से मंत्री पर आक्रमण करने लगे। इस बीच बच्चे की माला जोर जबरदस्ती में मंत्री के हाथ से टूट गयी और एक कौव्वा माला कइ मोती को चोंच में दबा कर राजमहल ले गया और शोर मचाने लगा।
जब राजा और रानी ने मोती को देखा तो वे घटना को समझ गए और तुरंत कौव्वे का पीछा कर अपने पुत्र को बचा दिया। उस दिन से राजमहल में कौव्वों के लिए इस दिन को एक विशेष त्यौहार के रूप मनाया जाने लगा और समस्त राज्य में इसकी घोषणा कर दी गयी। तबसे आज तक यह परम्परा चलती आ रही है।
दूसरी घटना है कि कोई घुघुती नाम का राजा था जिसकी मृत्यु कौव्वे द्वारा मकरसक्रांति को बताई गयी थी। राजा ने अपने मृत्यु टालने के लिए उस दिन कई पकवान बना कर कौव्वों को खिलाया और अपनी मृत्यु टाल दी। तबसे इस त्यौहार में विशेष पकवान बना कर कौव्वों को खिलाया जाता है। हालाँकि इन दोनों ही मतों में पहला मत ज्यादा तर्क संगत लगता है।
घुघुती त्यौहार आज भी उत्तराखंड के कई हिस्सों में विशेष उल्लास से मनाया जाता है ,मगर अब धीरे-धीरे इनकी पहचान खोने लगी है। उन्हीं के साथ विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए हैं वे कौवे जो इस त्यौहार के विशेष मेहमान होते हैं। उम्मीद करते हैं कि इस लेख के बाद न सिर्फ उत्तराखंड का बरसों पुराना यह त्यौहार जिन्दा रखने की कोशिश करंगे बल्कि कौव्वों की विलुप्ति की चर्चा और संरक्षण के लिए भी आगे आएंगे। वरना प्रकृति का यह सफाई कर्मचारी इन कहानियों में ही गुम होकर रह जायेगा।
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