गबर सिंह नेगी (Gabar Singh Negi) : उत्तराखंड के लोगों में भारतीय फौज के प्रति जज्बा और देशभक्ति की भावना पहले से ही समाहित थी। उत्तराखंड की भूमि में जन्मे वीरों ने हमेशा से दुश्मनों का लोहा लिया। फिर चाहे वह ऐतिहासिक काल की बात हो या फिर गुलामी के दौरान हो या आज़ादी के बाद की लड़ाई। यहां के वीरों के आगे दुनिया नतमस्तक हुई है।
उन्हीं वीरों में सम्मिलित है गढ़वाल के टिहरी क्षेत्र का गबर सिंह नेगी (Gabar Singh Negi)। गबर सिंह नेगी उत्तराखंड के उन वीरों में सम्मिलित है जिसने प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़कर भारतीय लहू का गौरव बढ़ाया।
उनके शौर्य और साहस के सामने अंग्रेजी हुकूमत भी झुक गई और उन्हें इंग्लैंड के सबसे बड़े सैन्य सम्मान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। आखिर क्या है वीर गबर सिंह नेगी की पूरी कहा आइए जानते हैं।
Table of Contents
गबर सिंह नेगी का जीवन | Gabar Singh Negi
गबर सिंह नेगी उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल के चंबा ब्लॉक की बमुण्ड पट्टी के एक छोटे गाँव मंज़ूड़ में के रहने वाले थे। इनका जन्म 21 अप्रैल सन् 1895 में हुआ था। यह एक साधारण परिवार से थे। जिस समय वे अंग्रेजी सेना में भर्ती हुए उस वक़्त टिहरी गढ़वाल पर पंवार वंश के शासक टिहरी रियासत के रूप में शासन किया करते थे।
हालांकि उस वक्त टिहरी रियासत उत्तराखंड के समस्त गढ़वाल व कुमाऊं को छोड़कर अंग्रेजी हुकूमत से अलग था। परन्तु फिर भी टिहरी के शासक अंग्रेजी शासन के अधीन ही थे। जब प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा और जर्मनी ने इंग्लैंड पर आक्रमण किया तो उस वक़्त इंग्लैंड की हालत पूरी तरह से खराब हो चुकी थी।
यही वजह है कि अंग्रेजों ने अपनी स्थिति सुधारने व इस युद्ध में अपने देश के नागरिकों को बचाने के लिए समस्त देशों से जो ब्रिटिश सत्ता के अधीन थे वहां के लोगों को इस युद्ध में झोंकने का काम किया। भारत भी अंग्रेजी हुकूमत के उस कुशासन से बच नहीं सका। और भारत के कई वीर लड़ाकों ने प्रथम विश्वयुद्ध में जून की लड़ाई कभी थी ही नहीं उसमें हिस्सा लिया।
उन्हीं वीर लड़ाकों में उत्तराखंड का यह वीर सपूत गबर सिंह नेगी (Gabar Singh Negi) भी था। गबर सिंह नेगी वर्ष 1913 में मात्र 18 वर्ष की उम्र में 2/39 गढ़वाल राइफल में भर्ती हो गए। भर्ती होने के बाद उन्हें फिर अंग्रेजी हुकूमत द्वारा यूरोप की उस भीषण युद्ध में झोंक दिया गया।
प्रथम विश्वयुद्ध में गबर सिंह की शौर्य गाथा
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सम्पूर्ण यूरोप युद्ध की विभीषिका से ग्रस्त था अंग्रेज साम्राज्य को जर्मनी से बुरी तरह झकझोर दिया था । अंग्रेजों के पास इतनी गहरी पलटन नहीं थी जिससे वो घुरी राष्ट्रों से लड़ सके। अंग्रेजों के युद्ध छिड़ते ही भारतीय सेना को यूरोप के मोर्चे पर झोंकने का निर्णय लिया गया।
उसी मोर्चे में शामिल थी गढ़वाल राइफल्स की 2/39 पलटन। अंग्रेजों की तरफ से भेजी गई पलटन के सिपाही प्रत्येक दिन हर मोर्चे पर शहीद हो रहे थे।
उनमें से सबसे महत्वपूर्ण था फ्रांस का न्यूचेपल मोर्चा। न्यूचेपल मोर्चा को जीतना ब्रिटिश सेना के लिए सबसे महत्वपूर्ण था। अगर ब्रिटिश व मित्र सेना इस न्यूचेपल मोर्चा को हार जाती जर्मनी के आगे उन्हें घुटने टेकने पड़ते। इस मोर्चे पर जर्मन सेना ने जबर्दस्त मोर्चा संभाला हुआ था।
दर्जनों टैंक व तोप खाने चारों ओर खड़े थे। ऊपर से कांटेदार तारों की बाड़, भीषण सीत वर्षा, गीली और कीचड़ वाली जमीन हर दिन रात आसमान में जर्मन सेना के लड़ाकू विमानों की उड़ान के कारण अंग्रेजी अफ़सरों की सारी रणनीति ध्वस्त हो रही थी।
असंभव से लगने वाले इस पोस्ट को जीतने के लिए अंग्रेजी सेना ने गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी को आगे भेजने का निर्णय लिया।
शौर्य का वो दिन
10 मार्च 1915 को सुबह 5 बजे जब चारों ओर कोहरा छाया था गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने जय बद्री विशाल के जयघोष के साथ आगे बढ़ना शुरू किया। दलदल वर्षा और भीषण ठंड की परवाह न कर गढ़वाली रणबांकुरे आगे बढ़े। उनके हर कदम के साथ जर्मन टैंक गरजने करने लगीं और ऊपर से जर्मन लड़ाकू विमान भीषण बमबारी करने लगे।
इधर गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी घुटने व कोहनी के नम गीली सतह पर एक – एक इंच जीतने के लिए कदम कदम बढ़ा रहे थे और अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे। इसी सेना की टुकड़ी में था 20 वर्षीय राइफलमैन गब्बर सिंह नेगी।
ये सोचने वाली बात है कि एक 20 वर्षीय नौजवान जो अभी ज़िंदगी की सीढ़ी पर कदम रख रहा था। वह प्रथम विश्वयुद्ध की इस भीषण आग में जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करता हुआ नजर आ रहा था और अपना सर्वस्व बलिदान का ध्येय बांध चुका था।
मोर्चे पर दोनों ही सैनिकों ने निकट आ गई थी कि राइफल से गोली चलाना असंभव था तो युद्ध गुत्थम गुत्था की लड़ाई में बदल गया।
गढ़वाली रणबांकुरे अपनी खुकरी से मार करने लगे और जय बद्री विशाल के गगनभेदी जयघोष के साथ जर्मन सैनिकों के लहू से जमीं लाल रंग से रंगते गए। गबर सिंह नेगी (Gabar Singh Negi) दर्जनभर जर्मन सैनिकों को मार चुका था और रेंगते हुए लाशों के बीच आगे बढ़ रहा था। इधर जर्मन सैनिकों ने ब्रेनगन से गोलियां बरसाना शुरू कर दिया।
ब्रेनगन की अंधाधुंध चलती गोलियों से भारतीय सैनिकों का जीवित बच पाना असंभव था। घर ब्रेनगन का मुंह बंद न किया जाता तो कई सैनिकों की क्षति हो जाती।
उसी समय इस 20 वर्षीय नौजवान गबर सिंह नेगी ब्रेनगन की तरफ आगे बढ़ा। लाशों के बीच से कोहनी के बल आगे बढ़ते हुए ब्रेनगन के सामने जा पहुंचे और उस आग उगलने वाली गन का रुख पलट कर जर्मन सैनिकों की ओर मोड़ दिया। ब्रेनगन का मुंह जर्मनी सैनिकों की ओर मुड़ने पर सैकड़ों जर्मन सैनिक अधिकारी मारे गए वो कई दर्जन घायल हो गए ।
इस भीषण क्षति के कारण दुश्मन सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा। न्यूसेपल के मोर्चे पर 350 जर्मन सैनिक तथा अफ़सरों को गिरफ्तार किया गया। भारी संख्या में टैंक टॉप राइफल और गोलाबारूद जब्त किए गए।
गढ़वाली रणबांकुरों द्वारा इस मोर्चे को जीतने के बाद जय बद्री विशाल के जयघोष से फ्रांस का यह न्यूचेपल मोर्चा गूंजने लगा। अंग्रेज़ी सैनिक अफसरों द्वारा गढ़वाली रण बांकुरों की इस मुझे के बाद उन् हें रॉयल सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया तभी से गढ़वाल राइफल्स रॉयल गढ़वाल राइफल्स के नाम से कहलाने लगी।
इस रॉयल सम्मान की बात गढ़वाल राइफल्स के जवानों को भारतीय सेना में विशेष पहचान के रूप में दाहिने कंधे पर लटकती विशेष प्रकार की चमचमाती लाल रस्सी प्रदान की गई। यह लाल रस्सी आज भी उनकी बहादुरी और शौर्य का प्रतीक है।
विक्टोरिया क्रास से सम्मानित गबर सिंह
राइफलमैन गबर सिंह ने यूं तो न्यूसेपल के मोर्चे पर मज़बूत शौर्य प्रदर्शन किया। परन्तु वह इस विश्व युद्ध में वह अपनी जान गंवा बैठे। अंग्रेज़ी सैन्य अधिकारियों द्वारा राइफलमैन गबर सिंह के अदम्य शौर्य के कारण उन्हें अंग्रेजी सेना के सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस मरणोपरान्त प्रदान किया गया।
इस सम्मान को विश्व युद्ध की समाप्ति पर भारत के तत्कालीन वायसराय ने दिल्ली में संपन्न भव्य विजय समारोह में गब्बर सिंह की पत्नी को प्रदान किया।
गबर सिंह की स्मृति में सन 1925 में टिहरी गढ़वाल जनपद के चम्बा नगर में 1 भव्य स्मारक बनाया गया जिस पर प्रतिवर्ष 21 अप्रैल को मेला लगता है यहां पर सैनिक कर्तव्यनिष्ठा और देश पर बलिदान होने की शपथ लेते हैं।
गबर सिंह नेगी(Gabar Singh Negi) जैसे सैनिकों के अदम्य साहस गढ़वाल राइफल्स द्वारा शौर्य की पराकाष्ठा को देखते हुए जर्मनी का तानाशाह हिटलर भी अचंभित हुआ था। यही नहीं विदेशी सैनिकों ने भी भारत के सैनिकों का लोहा माना।
यही वजह है कि सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के निर्माण के समय जर्मनी के तानाशाह द्वारा हिन्दुस्तानी सैनिकों को द्वितीय विश्वयुद्ध से अलग रखने की कोशिशें की जाती रही।
इसे भी पढ़ें – वीर चंद्र सिंह गढ़वाली
यह पोस्ट अगर आप को अच्छी लगी हो तो इसे शेयर करें साथ ही हमारे इंस्टाग्राम, फेसबुक पेज व यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें।