कुमाऊँ परिषद एवं उत्तराखंड में हुए कुमाऊँ परिषद के अधिवेशन : उत्तराखंड के प्रागैतिहासिक काल और उसके बाद हुए सामाजिक आर्थिक बदलाव में छोटे- छोटे ठकुरी गढ़ों का जन्म हम उत्तराखंड के इतिहास से सम्बन्धित पोस्ट में पहले ही बता चुके हैं। जिसके ढहने के बाद अंग्रेजो का उत्तराखंड में आगमन होता है और इस बड़े क्षेत्र पर सन 1947 तक राज रहता है। मगर गोरखाओं के बाद भारत के स्वंत्रता संग्राम में उत्तराखंड का योगदान की अगर पृष्ठभूमि उठा के देखें तो उस में कुमाऊँ परिषद और कुमाऊँ परिषद के अधिवेशन का बार-बार जिक्र निकल कर सामने आता है।
आखिर कुमाऊँ परिषद का उत्तराखंड में उठ रही स्वंत्रता की मांग में क्या योगदान था और कैसे इसके अधिवेशन ने कुमाऊँ के साथ-साथ ब्रिटिश गढ़वाल और राजशाही में विद्रोह का सूत्रपात किया इसे भी जानेगें, इसलिए इस पोस्ट को अंत तक पढ़ें।
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कुमाऊँ परिषद एवं उत्तराखंड में हुए कुमाऊं परिषद के अधिवेशन
उत्तराखंड में कुमाऊँ परिषद के जन्म की पृष्ठभूमि
1815 के बाद सिगोली की संधि से गोरखाओं का क्रूरता पूर्ण राज समाप्त हुआ। गोरखाओं के शासन के समय के कालखंड को गढ़वाल में “गोर्खाली या गोर्ख्याली” के नाम से जानते हैं। गोरखाओं ने जिस तरह से उत्तराखंड के कुमाऊँ में 1791 और गढ़वाल में 1804 के राज किया उससे क्षेत्र के लोगों में दहशत का माहौल रहा। विभिन्न प्रकार की दमनकारी कर प्रणाली और क्रूर न्याय प्रणाली से उत्तराखंड के रहवासियों में गोरखा राज को उखाड़ फेंकने की हिम्मत नहीं हुई। इसी कड़ी में मैं आपको चमोली के रैणि की भी कहानी बता चुका हूँ।
इसी कड़ी में बुटवल प्रान्त जो ब्रिटिशर के राज में था उस पर भी गोरखा आक्रमण कर नुकसान करने लगे। आखिरकार कंपनी ने कदम उठाते हुए गोरखा सत्ता को उत्तराखंड से उखाड़ फेंका और काली नदी के बीच नेपाल और उत्तराखंड की सिमा खींच दी।
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क्यूंकि उत्तराखंड के रहवासी अभी-अभी दमनकारी नीति और जंगली न्याय प्रणाली से गुजरे थे तो उस कारण कंपनी से यहां के रहवासी मनोभावना से जुड़े जो स्वाभाविक था। मगर जैसे ही 1857 में काली कुमाऊँ में ब्रिटिशर के खिलाफ माहरा गांव के प्रधान “कालू मेहरा” क्रांति में कूदे। उसने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक नई विद्रोही विचार धारा को जन्म दिया।
इस विद्रोही विचारधारा के जन्म में सबसे बड़ा हाथ तत्कालीन सुशाशन के नाम से प्रसारित रैम्जे का भी था। जिन्होंने 1857 में काली कुमाऊँ के विद्रोह को दबाने के लिए मार्शल लॉ लगाया और किसी व्यक्ति पर शक्क होने पर चाँदमारी से धक्का देने और नैनीताल के फांसी गधेरे पर लटकाने की कवायद शुरू की। इससे विद्रोह तो रुक गया मगर किसी भी इतिहासकार ने उससे पैदा हुए गैर अंग्रेजी हुकूमत के विचार के जन्म की बात नहीं कही।
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उन्होंने इसके इतर अंग्रेजों के 1858 में उत्तराखंड में शिक्षा की शुरुवात को इसकी मूल वजह को माना। जैसे-जैसे शिक्षा के लिए लोग उत्तराखंड से देश के अन्य कोने में उच्च शिक्षा के लिए गए इससे वे विभन्न जगहों पर अंग्रेजों द्वारा उठ रहे विद्रोह से प्रेरित हुए। इस बात से यह तो नहीं कहा जा सकता कि अंग्रेजो के लिए पनपी कड़वाहट का मूल शिक्षा थी या जंगलों में आम लोगों की निर्भरता पर रोक। मगर मेरे नजरिये से देखें तो उसका मूल तभी पैदा हुआ जब अंग्रेज गढ़वाल और कुमाऊँ पर राज करने लगे और एक सवाल जो हर परितंत्र में रहने वाले जीवों को और मनुष्यों में स्वाभविक पनपता है “एक बहार का व्यक्ति कैसे?” और यहीं से भौतिक तौर पर तो नहीं मानसिक तौर पर बगावत जन्म लेती है।
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हाँ शिक्षा ने जरूर इस राजनैतिक और सामाजिक चेतना को आवाज देने का काम किया जिसने समाचार पत्र के रूप में विरोध की उपजी आवाजों को बल दिया। इसी चेतना में पहले 1868 में समय विनोद, फिर 1870 में डिबेटिंग क्लब और 1871 को अल्मोड़ा अख़बार का उदय होता है। यानी उत्तराखंड के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में भी मंच सज चुका था खिलाड़ी भी तैयार थे और सामर्थ्य भी था मगर अब जरूरत थी इस आवाज को माध्यम देने की। जिसे इतिहासकार बताते हैं 1885 में कांग्रेस के जन्म के बाद यह कमी दूर हुई। मगर इस जवाब ने मन में एक सवाल जरूर कौंधता है – क्या वाकेही कांग्रेस ने उत्तराखंड में भी यही काम किया?
क्यूंकि 1912 में जब कांग्रेस की उत्तराखंड में स्थापना हुई तो उसके 4 वर्ष बीत जाने के बाद जनता में जागृति तो हुई मगर उसके अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिले। कांग्रेस अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफत की बात तो करती थी मगर क्षेत्रीय समस्याएँ नदारद थी। तभी कुछ जागरूक लोगों द्वारा जो कांग्रेस से प्रेरित थे कुमाऊँ परिषद की स्थापना की जाती है और कुमाऊँ परिषद के अधिवेशन के माध्यम से क्षेत्रीय समस्या को राष्ट्रीय समस्या के साथ सामंजस्य बिठा कर क्षेत्रीय स्वंत्रता के साथ राष्ट्रीय स्वंत्रता की आवाज मुखरित की जाती है।
कुमाऊँ परिषद की स्थापना
जैसे कि ऊपर कुमाऊँ परिषद की पृष्ठभूमि से बता चुका हूँ उत्तराखंड में राष्ट्रीय चेतना का जन्म तो हो चुका था मगर उसके बाद भी समाजिक तौर पर लोगों द्वारा खुल के विरोध नहीं देखने को मिला जिसकी सबसे बड़ी वजह क्षेत्रीय समस्या पर कांग्रेस की मुखरता में कमी। इसी वजह से सन 1916 में कुमाऊँ परिषद का गठन किया गया।
कुमाऊँ परिषद की स्थापना में पं० गोविन्द बल्ल्भ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, लक्ष्मी शास्त्री, इंद्र लाल शाह, हर गोविन्द पंत, चन्द्रलाल शाह, मोहन सिंह, प्रेम बल्ल्भ पाण्डे, भोलादत्त पाण्डे, मोहन जोशी आदि थे। कुमाऊँ परिषद ने क्षेत्र की अनेक समस्याओं को लेकर आंदोलन किये। कई स्थानों में क्षेत्रीय परिषद का भी गठन किया गया। ताकि अधिक सक्रियता और सुविधा से आंदोलन चलाया जा सके।
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उत्तराखंड में उठ रहे क्षेत्रीय रोष में कुमाऊँ परिषद के योगदान को गिना जाए तो उसके कई अभूतपूर्व उदाहरण देखने को मिलते हैं। जिसमे सबसे प्रमुख उदाहरण कुली बेगार प्रथा के खिलाफ एक विशाल आंदोलन। हालांकि कुमाऊँ परिषद 1916 से 1926 तक के 10 साल के छोटे कालखंड तक रहा मगर इस छोटे से कार्यकाल में भी उत्तराखंड के जनमानस में अभूतपूर्व छाप छोड़ी। इसने न सिर्फ कुमाऊँ परिषद के आत्मबल में वृद्धि की बल्कि तत्कालीन अंग्रेजी कमिश्नर को भी घुटने पर ला के खड़ा किया।
कुमाऊं परिषद के सबसे महत्वपूर्ण योगदान में कुली बेगार के खिलाफ एक विशाल आंदोलन का जिक्र हमेशा से उत्तराखंड के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होगा क्यूंकि 1815 से, 100 सालो से चली आ रही इस अंग्रेजी कुप्रथा के खिलाफ 1921 को एक विशाल आंदोलन हुआ। 14 जनवरी 1921 को बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत व चिरंजीलाल आदि के नेतृत्व में बागेश्वर के में सरयू नदी के तट पर उत्तरायणी मेले के दिन 40 हजार स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा कुली बेगार न करने शपथ ली और इससे सम्बन्धित रजिस्टर सरयू नदी में फेंक कर इस कुप्रथा का अंत किया।
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वहीं कुमाऊँ परिषद द्वारा 400 साल से भी अधिक समय से नायक समाज की कुप्रथा के लिए वर्ष 1919 में कुमाऊँ परिषद के तीसरे अधिवेशन में नायक समाज सुधार समिति की स्थापना हुई जिसकी पहली बैठक नैनीताल में हुई। इन्ही के अथक प्रयासों से नायक समाज को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए नायक समाज सुधार आंदोलन चलाया गया और आखिरकार इस कुप्रथा का अंत हुआ।
कुमाऊँ परिषद ने वन नीति, लाइसेंस नीति, नया वाद, वन बंदोबस्त आदि अनेक समस्याओं पर सफल आंदोलन किये। यही वजह है कुमाऊँ परिषद के क्षेत्रीय समस्याओं के खिलाफ आवाज मुखरित करने से उत्तराखंड में विदेशी राज के अत्याचार व अन्यायपूर्ण नीति के विरुद्ध जन जागृति उत्पन्न हुई। वहीं क्षेत्रीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना के जन्म का श्रेय भी कुमाऊँ परिषद को जाता है। बाद में इस परिषद का विलय 1926 में कांग्रेस में हो गया।
कुमाऊँ परिषद के अधिवेशन
कुमाऊँ परिषद के अधिवेशन | स्थान | अध्यक्ष |
पहला अधिवेशन (1917) | अल्मोड़ा | जयदत्त जोशी |
दूसरा अधिवेशन (1918) | हल्द्वानी | तारादत्त गैरोला |
तीसरा अधिवेशन (1919) | कोटद्वार | बद्रीदत्त जोशी |
चौथा अधिवेशन (1920) | हरगोविंद पंत | काशीपुर |
पाँचवा अधिवेशन (1923) | टनकपुर | बद्रीदत्त पाण्डे |
छठा अधिवेशन (1926) | गनियाँ द्योली | बैरिस्टर मुकुन्दीलाल |
कुमाऊँ परिषद का प्रथम अधिवेशन (1917)
1916 में कुमाऊँ परिषद के गठन के बाद हर साल परिषद के अधिवेशन विभिन्न स्थनों में आयोजित होते रहे। जिनमें अलग-अलग मुद्दों पर आवाज मुखरित की जाती थी। कुमाऊँ परिषद का प्रथम अधिवेशन सितंबर 1917 को अल्मोड़ा में हुआ। जिसकी अध्यक्षता जयदत्त जोशी ने की। जयदत्त जोशी अवकाश प्राप्त डिप्टी कलेक्टर थे। इस अधिवेशन में युवा तथा वृद्ध सभी प्रकार का नेतृत्व उपस्थित थे।
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कुमाऊँ परिषद के प्रथम अधिवेशन में ही युवा तथा पुराने नेताओं के बीच मतैक्य का अभाव दृष्टिगोचर हो गया था। पुराने नेता उदारवादी थे जबकी नए नेता कट्टर राष्ट्रीयता और तिलक की विचारधारा से प्रेरित थे। इस अधिवेशन में परिषद के प्रचार-प्रसार की योजना बनाई जिसके लिए लक्ष्मीदत्त शास्त्री को चुना गया। लक्ष्मीदत्त शास्त्री ने परिषद का प्रचार-प्रसार गांव-गांव तक किया। उन्हीं के प्रयासों से कुमाऊँ परिषद ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय हुई।
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कुमाऊँ परिषद का दूसरा अधिवेशन (1918)
कुमाऊँ परिषद का दूसरा अधिवेशन दिसंबर 1918 को हल्द्वानी में आयोजित किया गया। कुमाऊँ परिषद के दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता “राय बहादुर तारा दत्त गैरोला” ने किया। इस अधिवेशन में युवा वर्ग हावी रहा। इसी अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें दो वर्ष के भीतर सरकार द्वारा कुली बेगार को समाप्त करने की बात कही गई। वहीं ये चेतावनी भी दी गई यदि सरकार द्वारा इसे समाप्त न किया गया तो जनता सत्याग्रह करेगी।
कुमाऊँ परिषद का तीसरा अधिवेशन (1919)
कुमाऊं परिषद का तीसरा अधिवेशन कोटद्वार में आयोजित किया गया। कुमाऊं परिषद के तीसरे अधिवेशन की अध्यक्षता बद्रीदत्त जोशी ने की। इस अधिवेशन में भाग लेने वालों की संख्या 500 से अधिक थी वहीं तत्कालीन प्रसिद्ध नेता भी इस अधिवेशन में उपस्थित हुए । इससे अधिवेशन में 2 प्रस्ताव पारित हुए जो वन, तथा कुली उतार से सम्बन्धित थे।
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इस अधिवेशन में उपस्थित नेताओं में गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, मोहन जोशी, इंद्रलाल शाह, हर गोविंद पंत, जयलाल शाह, प्रेम बल्लभ पाण्डे, मोहनसिंह मेहता, तारादत्त गैरोला, गिरजादत्त नैथानी, विश्वंभरदत्त चंदोला, मुकुन्दीलाल, बची सिंह, मोहन सिंह, बुद्धिबल्लभ त्रिपाठी, दुर्गादत्त पंत, रामदत्त ज्योतिर्विद, बृजमोहन चंदोला, नारायण स्वामी, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, मथुरादत्त नैथाणी, धनीराम मिश्र, शिवलाल, चन्नी शाह, प्रताप सिंह, लोकमणि जोशी, हरदत्त उपाध्याय प्रमुख थे।
कुमाऊँ परिषद का चौथा अधिवेशन (1920)
कुमाऊं परिषद का चौथा अधिवेशन दिसम्बर 1920 में काशीपुर में आयोजित हुआ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता हरगोविन्द पंत ने की। इस अधिवेशन में अनेक प्रस्ताव पारित हुए जिसमें असहयोग का प्रस्ताव भी था। इस प्रकार इस अधिवेशन में स्थानीय आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने की कवायद की गई। इस अधिवेशन की प्रमुख विशेषता रही के सेलिब्रेशन का अध्यक्ष अन्य अधिवेशनों की भाँति उदारपंथी नेतृत्व से नियुक्त होकर युवा नेतृत्व से नियुक्त हुआ। वहीं युवा नेतृत्व इस अधिवेशन में भी प्रभावी रहा। जिस कारण इस अधिवेशन में उदारपंथी अपने मत को मनवाने में असफल रहे और उन्होंने परिषद का त्याग कर दिया।
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कुमाऊँ परिषद का पाँचवा अधिवेशन (1923)
कुमाऊं प्रसिद्ध का पांचवा अधिवेशन 1923 को टनकपुर में आयोजित हुआ। इस आन्दोलन की अध्यक्षता बद्रीदत्त पाण्डे ने की। इस अधिवेशन में हुए फैसलों और प्रस्तावों के बारे में जानकारी अभी प्राप्त नहीं है।
कुमाऊँ परिषद का छठवां अधिवेशन (1926)
कुमाऊँ परिषद का छठवां अधिवेशन 1926 को गनियाँ झोली में समपन्न हुआ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने की। इसी अधिवेशन में कई सफल आन्दोलनों के पश्चात कुमाऊँ परिषद का विलय कांग्रेस में हो गया।
कुमाऊँ परिषद की भांति पश्चिमी उत्तराखंड में भी गढ़वाल परिषद की स्थापना की गई। अक्तूबर 1919 को श्रीनगर गढ़वाल में इसका प्रथम सम्मेलन हुआ जिसमें अनेक प्रस्ताव पारित किए गए। गढ़वाल प्रसिद्ध का प्रथम अधिवेशन कोटद्वार में नवम्बर 1920 में संपन्न हुआ।
इस प्रकार दोनों ही क्षेत्रीय परिषदें है उत्तराखंड में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लक्ष्यों को प्राप्त करने में बहुत कुछ सफल रही। इन सबका परिणाम ये हुआ कि आगामी राष्ट्रीय आन्दोलन हेतु वृहद जनसमूह एकत्रित हो गया।
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