उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकोत्सव
उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकोत्सव या लोकपर्व: उत्तराखण्ड-हिमालय के गढ़वाल सम्भाग हो या कुमॉउ सम्भाग दोनों ही भू-भागों का रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, आचार विचार, रीति-रिवाज, एवं भाषा में कोई विशेष भिन्नता नहीं है। सब एक ही है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने अपने शोध ग्रन्थ लिंग विस्टिक सर्वें ऑफ इण्डिया भारत की भाषा, संस्कृति, लोक उत्सव आदि का विस्तार से वर्णन किया है। सामान्यतः किसी भी प्रदेश का जनसमुदाय उनका विश्वास हर्ष, आनन्द एवं उल्लास की अभिव्यक्ति के अवसर को हम उत्सव का नाम ले सकते हैं।
उत्तराखण्ड में ऐसे सामूहिक उत्सवों को थौठ, मेले, कौशिक / कौथिग, जात अथवा जात्रा नाम दिया जाता है। ये सभी उत्सव उत्तराखण्ड की संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। इनके अध्ययन के बिना उत्तराखण्ड की संस्कृति का ज्ञान अधूरा है। डा0 डी0 डी0 शर्मा के अनुसार लोकोत्सव मानव जीवन में एक नवीनतम आनन्द का संचार करते हैं। लोक-उत्सव के बिना किसी भी प्रदेश की संस्कृति को उजागर नहीं किया जा सकता।
सौभाग्य से सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से उत्तराखण्ड की उत्सवधर्मा संस्कृति समृद्ध और वैभवशाली है। उत्तराखण्ड में अधिकतर लोक-उत्सव या तो ऋतुओं पर आधारित होता है या विशेष पर्वों पर, और ये ही विशेष पर्व के अवसर परम्परागत रूप से आयोजित होते आएं हैं। कुछ ऐसे भी लोकोत्सव होते हैं जिनके आयोजन के लिये कोई निश्चित परम्परा तिथि वार निर्धारित नही है, इनके आयोजन के लिये, पडिंतों से कोई शुभ मुहुर्त निकलवाना पड़ता है।
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उत्तराखण्ड में मुख्यतः दो प्रकार के लोक-उत्सव प्रचलित हैं। एक तो देवी-देवताओं की पूजा-अनुष्ठान सम्बन्धी लोकोत्सव और दूसरे ऋतु उत्सव। लंबे समय तक चलने वाले लोकोत्सव की श्रेणी में आतें है। यद्यपि आज के आधुनिक समय में मानव के पास, समय की कमी के कारण, उत्सव धर्मिता में काफी कमी आ गयी है। जिसके कारण दोनों उत्सवों की परम्परा में नगण्यता आ गयी है।
मगर कुछ दशक पूर्व गढ़वाल में बसंत पंचमी से लेकर बैसाखी तक हर गांव में बाल वृद्ध से लेकर, गॉंव की कन्यायें और पुत्र-वधुएं एकत्रित होकर सामूहिक नृत्य-गीत, थड्या, झुमैलो, चौफुला, आदि के द्वारा सामूहिक रूप से इकट्ठा होकर उल्लासित होती थे। नीचे उत्तराखंड में मनाये जाने वाले ऋतु-उत्सवों का वर्णन किया जा रहा है।
उत्तराखण्ड में मनाए जाने वाले लोक-उत्सव (लोक पर्व)
1-फलू देई अथवा फलू संक्रान्ति- गढ़वाल में इसे फलू देई नाम से जाना जाता है। यह उत्सव पुष्प सक्रांति अतः मीन सक्रांति से विषुप्त सक्रांति ( बैसाखी) तक पूरा एक महिना चलता है। फूल देई का उत्सव नये वर्ष का फूलों का त्यौहार है। फूलों में देवता निवास करतें है यही विश्वास उत्तराखण्ड के जन मानस में समाया हुआ है। नये वर्ष के प्रारम्भ में नये फूलों से प्रत्येक गृह स्वामी के लिये उसकी समृद्धि की कामना की जाती है। “फूलदेई, फूलदेई-फूल संगराद, सुफल करो, नयों साल तुमक, श्री भगवान।”
2-बंसत पंचमी, हिरयालि का उत्सव- कृषि पर्व और सरस्वती पर्व का यह संगम बंसत हमारा सांस्कृतिक पर्व है। इस समय जौ और गेंहूं के छोटे-छोंटें पौधे खेतों में उग जातें है। इस दिन उत्तराखण्ड में अपनी खोलियों ( घर का प्रवेश द्वार) पर जौ के पौधे गोबर पर चिपकाकर लटकातें है। उत्तराखण्ड का यह एक महत्वपूर्ण लोक-उत्सव है, इस सम्बन्ध में लोकगीत के अर्न्तगत गाया भी जाता है। “आइ पंचमी भौउ की, बांटी हर्याली जौउ की।”
3-होलिका उत्सव- होली का सम्बन्ध बंसन्त ऋतु सें ही जुड़ा हुआ है यह पर्व उत्तराखण्ड के गढ़वाल मंडल की अपे़क्षा कुमॅाउनी मण्डल में ज्यादा प्रचलन में रहता है यह गढ़वाल का मौखिक उत्सव ना होतें हुए, इस उत्सव के आयोजन में उत्तराखण्ड संस्कृति पर मैदानी प्रभाव विदित होता है। इस लोकोत्सव में प्राय ब्रज मण्डल के गीतों का रूपान्तरण होता है। आज भी ज्यादारतर होली गीत ब्रजभाषा या खड़ी बोली के ही है। “जल कैसे भरूं जमुना गहरी, खड़े भरूं तो सास बुरी है, बैठे भरूं तो फूटे डागरी, जल कैसे भरूं।”
4-गोधनोत्सव ( बग्वाल)- जो स्थान नगरीय संस्कृमित में दीपोत्सव दीपावली का है वही स्थान उत्तराखण्ड में, गोधन ( बग्वाल) का है। पूरी बरसात, कृषक परिवार, अपने पशुओं को लेकर खेतों में गोठ लगाकर अत्यन्त व्यस्त जीवन व्यतीत करता है और किसान की खरीफ की फसल पककर तैयार हो जाती है। किसान के घर अन्न भंडार, धान, झंगोरा, मंडवा मक्की, कौणी, उड़द, आदि विभिन्न फसलों से भर उठता है तो वह उल्लासित होकर पशुधन के प्रति आभार व कृतज्ञता प्रकट करने के लिये उसका मन उत्साहित हो उठता है और यही उत्साह उसे गोधन उत्सव मनाने के लिये प्रेरित करता है। उत्तराखण्ड में यह कहावत भी है कि समृद्ध किसान की हर दिन बग्वाल है, गोधन-बग्वाल बीती, द्वी सारी रीती।
5-विषवत संक्रान्ति विखौती- गढ़वाल का यह प्रसिद्ध लोक उत्सव, विशु उत्सव के नाम से भी जाना जाता है यह संक्रान्ति उत्सव बैसाख मास की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। यह एक परम्परागत उत्सव है। इस उत्सव में स्त्री-पुरूष सामान्य रूप से गाजे बाजे के साथ स्थानीय लोकगीत गातें हुए नृत्य करतें है। उत्तरकाशी के बंगाल क्षेत्र में विशु मेले में धनुष बाण का युद्ध खेल चलता है।
6-मरोज- यह उत्सव शीतकाल में, माघ के पूरे महीने भर मनाया जाता है। इस समय लोग खेती -बाड़ी के कार्य से मुक्त रहतें है और पूरा समय, खाने-पीने, लिने-जुलने व नाच गाने में बितातें है। इन दिनों भोजन में मांस-मदिरा का प्राधान रहता है। प्रतिदिन संायकाल को गॉंव के सभी निवासी, किसी एक नियत स्थान पर एकत्रित होकर लोकवाद्यों की धुनों पर, सारी रात नाच-गाना व हंसी ठठठा में बितातें है।
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एक व्यक्ति नृत्य करता है तथा शेष वाद्यों की संगीत पर गीत गातें है। महीने भर चलने वाले इस उत्सव के समापन की कोई नियत तिथि नहीं होती समाप्ति का निर्णय ग्राम-प्रधान ( मुखिया) पर निर्भर करता है।
7-ध्यूसग्यान / घी संग्राद- भादªपद मास के प्रथम दिन ( सिंह संक्रान्ति ) को मानाये जाने वाला यह उत्सव पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाता है। इस दिन तोर आदि दालों की पीठ्ठी से भरी रोटी के साथ, घी, मक्खन खाकर इस त्यौहार को मनाया जाता है।
8-हरेला उत्सव– उत्तराखण्ड में मनाये जाने वाला यह विशेष उत्सव है। यह उत्सव श्रावण मास की संक्रान्ति के दिन मनाया जाता है किन्तु नौ दिन पूर्व ही ज्योतिष गणना के अनुसार इस पर्व का शुभारम्भ हो जाता है। संक्रान्ति के दिन घर के सभी सदस्य प्रातः काल हरियाला काटने की रस्म पूरी करतें है। घर की मातायें शुद्ध स्थान से मिट्टी लाकर दोनों में भरकर, पॉंच या सात धान जैसे-धान, मकई उड़द, तिल भट्ट आदि को मिलाकर मिट्टी में बो देती है और घर के पुरूष देवी-देवताओं को ( जिनके निमित्त येक हरियाला बोया गया है) उनको अर्पित कर देतें है। ग्रामीण अंचलों में तो आज भी ये प्रथा व्याप्त है। किन्तु शहरों में इस पर्व को अब वृक्षा रोपण के माध्यम से मनाया जाता है।
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1-उत्तराखण्ड के मेले एवं लोकोत्सव ( राकेश मोहन)
2- उत्तराखण्ड महोत्सव( वीरसिंह ठाकुर)
3- उत्तराचंल महोत्सव कविता सग्रह( डी0 एस रावत)
4-उत्तराखण्ड के विविध रंग( श्रीमती वीणा चर्तुवेदी )
5- भारतीय लोक संस्कृति का सन्दर्भ ( डा0 गोविन्द चातक)
वन्दना शर्मा
पी0 एच0 डी0 शोधार्थी
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