” सत्यमेव जयते. हमारा सूत्र वाक्य है किन्तु गणतंत्र दिवस में झाँकियाँ झूठ बोलती है। … इनमें विकास कार्य और जनजीवन की झाँकियाँ निकाली जाती है । लेकिन मेरा मानना है कि असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। ” – ये वाक्य हिंदी के महान लेखक हरिशंकर परसाई जी के हैं जिसका शीर्षक था “ठिठुरता हुआ गणतंत्र ” , ये बात भले ही परसाई जी ने वर्ष 1970 में लिखी हो मगर इस बात की प्रमाणिकता आज भी उतनी ही है जितनी 5 दशक पहले थी। गणतंत्र महज मतगणना तक रह गया है। जो उनमे से बच गए वे नेताओं की झूठियाँ माँझ रहे हैं। इस बार की जनवरी में जब राष्ट्रपति जी बोली तो लगा कि अमृत काल है युवा भारत के सपने हमको ही साकार करने हैं। देश का नाम ऊँचा करना है 2045 तक दुनिया को मुट्ठी में करना है।
मुस्करा के जो नजर उठायी तो लाइब्रेरी के कोनो में लाल टमाटर सी आँखें और किताबों के पन्नों पर थूक लगा लगा के पानी की कमी से फटे होंठ मुस्करा रहे थे। पहली बार अच्छा लग रहा था वैसा ही अच्छा जैसे पिछले साल लगा था मगर इस साल पहली वाली से खुशी अलग थी। साफ लग रहा था।
बस फिर क्या यारों के व्हाट्सएप ग्रुप का नाम “अग्निपथ” से “हम होंगे कामयाब” करके दो मुस्कराती इमोजी के साथ बदल दिया। सिलेबस के पन्ने फिर पलटे गए, एक बार फिर हल्दी घाटी, पानीपत में घोड़े दौड़े, फिर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में चोल दक्षिण एशिया की तरफ चलने को नावों के पाल कसने लगे, भक्ति में डूबे कुछ लोग फिर देशभर में चहल कदमी करने लगे, फिर शिल्पलेख, और ताम्रपत्र उकेरे जाने लगे, पश्चिम के कुछ जहाज फिर भारत के किनारों पर खड़े हो गए, झांसी फिर दहकने लगी, सती का विरोध होने लगा, रेलगाड़िया भारत की छाती पर दौड़ने लगी, एक संयासी विश्व को धर्म का पथ पढ़ाने निकल गया, लोग छलनी होके जलियाँवाला में गिरने लगे, नमक फिर बनाया जाने लगा, जापान के धमाकों से कान के परदे सुन्न हो गए और गिरते पड़ते लड़खड़ाते भारत के नक़्शे पर खींची दो लकीरों के बाद आजादी मिल गयी ।
ये अध्ययाय खत्म हुआ तो जेब से रुमाल निकाल के पसीना पोछने लगा, कुछ रूपये जेब से नीचे गिर गए साथ में कुछ सिक्के खन्न-खन्न की आवाज से लाइब्रेरी के शांत वातावरण में गूंजने लगे। बगल में बैठे विकास ने उन्हें उठाया और देकर फुसफुसाते हुए बोला भैय्या जी गर्मी बहुत है ऐसी थोड़ा बढ़वा दीजिये। मैंने भी टप्प से बोला ग्लोबल वार्मिंग पर नजर दौड़ाओ ठंडा लगने लगेगा। अचानक पन्नों की शटर-पत्तर तेज हो गयी।
थोड़ी देर जो कैंटीन में निकला तो वहां कुछ अलग ही माहौल था। पराठों के एक-एक निवाले के साथ भूख सूचकांक और गरीबी रेखाओं की लम्बाई नापी जा रही थी। कुछ हेल्दी खाने के नाम पर देश का हेल्थ सूचकांक और SDG नाप रहे थे। कुछ बेशरम से नौजवान WB और IMF से उधार में पी गयी चाय और समोसे के दाम खातों में चढ़वा रहे थे। कुछ स्वामीनाथन और वर्गीज कुरियन के गुणगान में चाय सुड़क रहे थे। जिसे देखो बस सिलेबस से जुडी बात दोहरा रहा था, बस सबमें एक ही था जो फोन में घुसा था और बैचेन हुआ जा रहा था।
मैं उसके पास बैठकर अपने चाय और समोसे लेके पंहुचा अर्थनीति और इतिहास से इतर उसने मुझे प्रधान जी कहा मैंने भी झट्ट से जवाब दिया अनुछेद-243, 73वां सविंधान संसोधन, साल 1993 . तो वो सरला – सरला कहने लगा। मैंने फिर तप्प से जवाब दिया संसद अनुच्छेद – 79, राज्यसभा – 80 और लोकसभा – 81 .उसने इस बार नाग पंचमी- नाग पंचमी दोहराया।
मैं जैसे ही पाँच नागरिकता का जिक्र करता उसके मोबाइल पर कई स्टडीज के नोटिफिकेशन बजने लगे। वो लिंक खोल के बोला –
धरना – मैं बोला अनुच्छेद 19, स्वंत्रता का अधिकार
CBI – 1963 क्रामिक विभाग
अध्यादेश – अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति, 213 राज्यपाल
धारा 144 – में बोला 1973 भारतीय क्रिमनल पैनल कोड
पेपर लीक – वो नहीं आता ..
महज 12 दिन पहले देश के गौरव पर फूली छातियां आज लाठियों से दौड़ा-दौड़ा कर हांफते हुए फूल रही हैं। जिनके कंधे लाल किले की प्राचीर से गुंजायमान आवाजों पर तन कर सीधे हुए थे, बेतों और डंडों की मार से नीले पड़कर झुक गए हैं। जो दौड़ाये गए उनकी 150 की चप्पलें सड़े छः लाख करोड़ की काली जमीन पर पड़ी हैं। जिनसे देश के सपने को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगायी गयी वो जेल में सलाखें गिन रहे हैं। नेता फटे हुए कुर्तों से ट्विटर की स्क्रीन पोंछ रहे हैं जो बच गए वो कमोट मैं बैठकर सरकारी दमन की निंदा लिखकर फ्लश कर रहे हैं। ये इसलिए क्यूंकि इतिहास से निकलकर कुछ गजनवी के वंशज शिक्षा की लूट से तिजोरी भर रहे हैं। उसने 17 बार लूटी थी उसके लड़के उससे कहीं आगे निकल चुके हैं।
(दीपक बिष्ट )
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