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उत्तराखंड के पंवार वंश का इतिहास || Uttrakhand ke Panwar Vans ka Itihas

Uttrakhand ke Panwar Vans ka Itihas

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Uttrakhand ke Panwar Vans ka Itihas in hindi: उत्तराखंड के इतिहास में गढ़वाल पर पंवार वंश ने काफी काफी लंबे समय तक राज किया। गढ़वाल पर राज करने वाले पंवार वंश के परम प्रतापी राजाओं ने ना सिर्फ उत्तराखंड के 52 गुणों को अपने राज्य में मिलाया। बल्कि सांस्कृतिक व कला के क्षेत्र में गढ़वाल के इस पहाड़ी भू-भाग को अपनी पहचान भी दी।

इस पोस्ट के माध्यम से उत्तराखंड के पंवार वंश का इतिहास (History of Panwar Dynasty of Uttarakhand in hindi)के बारे में अहम जानकारियाँ दी गई हैं। जिन्हें उत्तराखंड के इतिहास के विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से इकट्ठा की गई हैं।  


उत्तराखंड के पंवार वंश का इतिहास | उत्तराखंड के परमार वंश का इतिहास (Uttrakhand ke Panwar Vans ka Itihas)

उत्तराखंड के इतिहास के बारे में जानें तो यहां कुषाण व कत्युरी शासन काफी लंबे समय तक रहा। मगर जब उत्तराखंड पर कत्यूरी शासन का पतन हुआ तो उसके पश्चात यहाँ 2 वशों का अभ्युदय हुआ – कुमाऊं में चंद वंश व गढ़वाल में पंवार वंश ।

चंद वंश व पंवार वंश (Panwar Vans) के परमप्रतापी राजाओं ने काफी लंबे वक्त तक उत्तराखंड पर शासन किया तथा यहाँ की संस्कृति व कला के विस्तार में अहम योगदान दिया। कत्युरियों के शासन के बाद उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र 52 गुणों में विभक्त था। ये तमाम गढ़ आपस में लड़ते रहते थे। उन्हीं में से एक गढ़ था चांदपुर गढ़ जहां पंवार (परमार वंश) के राजाओं स्थापना हुई।

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कनकपाल : Kanakpal

ब्रैकेट तथा विलियम्स की वंशावलियों के अनुसार पंवार वंश का संस्थापक कनकपाल था। हालाँकि अल्मोड़ा से प्राप्त वंशावली में गढ़वाल में पंवार वंश की स्थापना करने वाला व्यक्ति भगवान पाल, मोलाराम की वंशावली के अनुसार भौना पाल तथा हाइविक की वंशावली पंवार वंश का संस्थापक भोग दत्त नामक व्यक्ति बताया गया है। लेकिन बहुत से इतिहासकारों द्वारा ब्रैकेट की वंशावली को प्रामाणिक मानते हुए पंवार वंश का संस्थापक राजा कनकपाल बताया गया है।
उत्तराखंड के पंवार वंश का इतिहास | History of Panwar Dynasty of Uttarakhand

कनकपाल के सम्बन्ध में कहा जाता है कि, वह गुजरात से उत्तराखंड की तीर्थयात्रा पर आया था जहां उसकी मुलाकात चांदपुरगढ़ के राजा सोनपाल से हुई। राजा सोनपाल ने कनक पाल से अपनी पुत्री का विवाह करके उसे चांदपुर गढ़ का राजपाठ सौंप दिया।

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अजय पाल : Ajaypal

राजा कनकपाल की मृत्यु के पश्चात् कई पंवार वंश के राजाओं ने चांदपुरगढ़ पर राज किया जिनमें जगतपाल, सहजपाल आदि हैं। मगर पंवार वंश में सबसे ज़्यादा ज़िक्र अजयपाल का देखने को मिलता है। अजयपाल को गढ़वाल में पंवार वंश का परम प्रतापी राजा कहा गया है।
अजयपाल का जिक्र कवि भरत की पुस्तक “मनोदय” में देखने को मिलता है। कवि ने इस पुस्तक में अजयपाल की तुलना कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, कुबेर व इंद्र से की है। अजयपाल ने ही गढ़वाल के 52 गढ़ों को जीतकर गढ़वाल पर पंवार वंश के राज्य की स्थापना की।
उत्तराखंड के पंवार वंश का इतिहास | History of Panwar Dynasty of Uttarakhand




राजा जयपाल ने चांदपुर गढ़ से राजधानी श्रीनगर गढ़वाल में स्थापित किया। वह अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी के मन्दिर की स्थापना देवलगढ़ में की। इतिहासकारों के अनुसार राजा अजयपाल गोरखनाथ पंथ का अनुयायी था। उनकी ध्यान मुद्रा में एक तस्वीर देवलगढ़ के मन्दिर में भी देखने को मिलती है। उत्तराखंड के पंवार वंश का इतिहास | History of Panwar Dynasty of Uttarakhand
सांवरी ग्रन्थ में अजयपाल को आदिनाथ कहकर संबोधित किया गया है। राजा अजयपाल के ही समय में चंद वंश के राजा कीर्ति चन्द के गढ़वाल पर आक्रमण का जिक्र मिलता है।


सहज पाल: Sahaj Pal

अजयपाल के पश्चात पंवार वंश की वंशावली के अनुसार कल्याण शाह, विजयपाल, हंसदेव पाल, सुंदरपाल सिंहासनरूढ़ हुए मगर इन सबके सम्बन्ध में कुछ खास जानकारी उपलब्ध नहीं है। मानदेय काव्य के अनुसार अजयपाल का पुत्र सहजपाल था। इस काव्य में सहजपाल को प्रजा का हित चाहने वाला, शत्रुओं का नाश करने वाला, दानी, विद्वान तथा आश्रयदाता वो चतुर राजनीतिज्ञ कहा गया है।
सहजपाल द्वारा 1548 व 1561 ईसवी में उत्कीर्ण दो अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं।


मानशाह : Maanshah

सहजपाल के बाद मानशाह से ही पंवार वंश (Panwar Vans) के अन्य राजाओं की स्पष्ट रूप से जानकारी मिलती है। मनोदय काव्य रचना भी मानशाह के ही समय में हुई थी। मानसिंह को मुगल राजा अकबरजहांगीर का समकालीन माना जाता है।
मानशाह के बारे में देवप्रयाग के क्षेत्रफल व रघुनाथ जी मंदिर में शिलालेख प्राप्त हुए हैं। मानशाह के समय कुमाऊं का राजा लक्ष्मीचंद था। बद्री दत्त पाण्डेय के कुमाऊं के इतिहास के अनुसार मानशाह ने कुमाऊं पर आक्रमण करके लक्ष्मीचंद को बुरी तरह हराया था। कवि भरत के मानोदय काव्य में मानशाह के शौर्य के बारे में लिखा है।

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श्यामशाह

मानशाह की मृत्यु के बाद पवार वंश की गद्दी को उसके पुत्र श्याम शाह ने संभाला। जहांगीर नामा के अनुसार श्यामशाह ने मुगल दरबार में घोड़े तथा हाथी उपहार स्वरूप भेंट किए थे। मानशाह के समय उन्होंने जिन तिब्बत लुटेरों का दमन किया गया था वह श्याम शाह के शासन के दौरान पुनः खड़े उठे।
श्याम शाह को पंवार वंश का विलासी राजा भी बताया गया है। हालांकि फिर भी उसको संतान प्राप्ति नहीं हुई। श्यामशाह की मृत्यु के बाद 60 रानियों के सती का भी ज़िक्र भी उल्लेखित है।


महीपति शाह : Mahipati shah

श्याम सिंह के पुत्र न होने के कारण उनके चाचा महिपति शाह ने गढ़वाल में पंवार राजवंश की गद्दी संभाली । महीपतिशाह एक कुशल राजनीतिज्ञ और युद्ध-प्रवीण राजा थे। गढ़वाल राजवंश की गद्दी संभालते ही वे शत्रुओं से युद्ध में जूझते रहे। में महिपति शाह ने अपने शासनकाल में तिब्बत पर 3 बार आक्रमण किया था।
महिपति शाह को गर्व भंजन की उपाधि भी इन्हीं युद्धों से मिली थी। महीपतिशाह के तिब्बत अभियानों में उनके सेनापति माधो सिंह भंडारी के शौर्य गाथा का ज़िक्र भी मिलता है।

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महिपति शाह ने इसी अभियान के दौरान रोटी शुचि नामक प्रथा का भी प्रचलन किया था। इस प्रचलन के बाद कोई भी व्यक्ति बिना कपड़े उतारे भोजन बना सकता था। वहीं रोटी को शुची यानी शुद्ध जाने की प्रथा प्रचलन हुआ।
इसके अनुसार ब्राह्मण भी क्षत्रियों के हाथ से रोटी खा सकते थे। तिब्बत अभियान के दौरान ही महीपतिशाह ने माधोसिंह भंडारी के साथ अपने राज्य की सीमा निर्धारण का कार्य भी किया था।

महिपति शाह की मृत्यु कुमाऊं पर आक्रमण करने के दौरान हुई। बताते हैं कि महिपति शाह ने 3 नागा साधुओं को मार डाला था। जिसका प्रयाश्चित करने के लिए ब्राह्मणों ने सलाह दी थी कि पीपल के कटोरे में बैठकर जलभरे, स्वर्ण गलाकर पी जाए अथवा युद्ध में लड़ते हुए जान दे दे।


पृथ्वीपति शाह Prathvipati Shah

राजा महिपति शाह की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र पृथ्वीपति शाह पंवार राजवंश (Panwar Rajvans)की गद्दी का उत्तराधिकारी बना। इतिहासकारों के अनुसार जब पृथ्वीपति शाह गद्दी पर बैठे तो उनकी आयु महज 7 साल थी। अतः उस दौरान राज्य की संरक्षिका की भूमिका उनकी मां रानी कर्णावती ने निभाई।
रानी कर्णावती इतिहास में नक कट्टी रानी के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं कि गढ़वाल पर रानी की सत्ता की खबर सुन मुगल सेना ने नजाबत खाँ के नेतृत्व में गढ़वाल पर चढ़ाई कर दी। मगर उन्हें गढ़वाल के वीर सपूतों से मुंह की खानी पड़ी।

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पृथ्वीपति शाह के गद्दी संभालने पर दारा शिकोह, औरंगजेब से पराजित होकर अपने पुत्र सुलेमान शिकोह के साथ गढ़वाल आए। गढ़वाल आकर उन्होंने पृथ्विपति शाह की राजधानी श्रीनगर में शरण ली। औरंगजेब ने गणराज्य द्वारा अपने शत्रु को शरण देने पर इसे अपना घोर अपमान समझा और उन्हें पत्र लिख कर पृथ्वीपति शाह को सुलेमान को तुरन्त दिल्ली भेजने की सलाह दी।
मगर पृथ्वीपति शाह ने औरंगजेब की चेतावनी और धमकियों को दरकिनार किया। हालांकि पृथ्वीपति शाह के पुत्र मेदनीशाह ने गढ़राज्य के सिंहासन पर ख़तरा समझ कर बड़ी चालाकी से सुलेमान शिकोहा को मुगलों को सौंप दिया।

 


मेदनी शाह : Medani Shah

गढ़वाल में स्थित पंवार राजवंश का अगला उत्तराधिकारी पृथ्वी पति शाह का पुत्र मेदिनीशाह बताया जाता है। हालांकि कई इतिहासकारों का मानना है कि सुलेमान शिकोह को मुगलों के हाथों सौंपने के कारण पृथ्वीपति शाह ने इसे गद्दारी के रूप में समझा और मेदनी शाह का देश निकाला किया। मेदनी शाह के देश निकाला होने पर उसने औरंगजेब की शरण ली।

वहीं अन्य इतिहासकारों का मानना है कि मेदिनीशाह ने पृथ्वी पति शाह से सत्ता हथिया ली थी। वहीं सुलेमान शिकोह को मुगल सेना को सौंपने के कारण मेदिनीशाह औरंगजेब का कृपापात्रता प्राप्त कर ली थी।
मेदनी शाह ने हिमाचल प्रदेश के बुटौलगढ़ पर भेजी मुगल सेना का नेतृत्व किया था। बुटौलगढ़ को जीतने से खुश होकर औरंगजेब ने उसे दून क्षेत्र वापस दे दिया। मेदनी शाह के शासनकाल में ही डोटी के रैका और गढ़वाल की सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण किया था।
जिन्हें कुमाऊं के चंद शासक उद्योत चंद ने युद्ध में पराजित किया।

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फतेहशाह : FatehShah

फतेहशाह, मेदनी शाह की मृत्यु के पश्चात पंवार राज्य का राजा बना। फतेह शाह के शासनकाल का उल्लेख सिख, मुस्लिम काल में उत्कीर्ण अभिलेख व सिख, मुस्लिम ग्रन्थों में देखने को मिलता है। फतेहशाह कि सत्ता के दौरान ही उनके दरबारी कवि रामचन्द्र कंडियाल द्वारा फतेहशाह यशोवर्णन काव्य लिखा गया है।
फतेहशाह ने सिरमौर राज्य पर आक्रमण कर बाराहगढ़ और कालसी पर अधिकार जमाया था।



इतिहास के अनुसार फतेहशाह ने सिक्खों के दसवें एवं अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह से युद्ध किया था। इस युद्ध में सिरमौर राज्य के राजा मेदनी प्रकाश ने सिक्ख गुरु का साथ दिया था।
फतेहशाह की सत्ता के दौरान ही चंद शासक ज्ञानचन्द ने दुधौली के युद्ध में गढ़वाल नरेश को हराया था। फतेहशाह ने सिखों के सातवें गुरु हर राय के पुत्र राम राय को अपने राज्य में शरण दी थी। फतेहशाह ने हीं फतेहपुर नगर की स्थापना की थी।


प्रदीपशाह : Pradeep Shah

फतेहशाह की पश्चात उपेन्द्र शाह राजा बना।  वो बड़ा न्यायिक, धर्मात्म और विद्वान राजा था परन्तु उसकी कुछ ही माह के पश्चात उसकी मृत्यु हो गई। उसकी कोई भी संतान न होने के कारण उसके छोटे भाई दिलीप शाह के पुत्र प्रदीप शाह को पंवार वंश का अगला राजा बनाया गया।

जब प्रदीप शाह पंवार राजवंश की गद्दी पर बैठे तो उनकी उम्र महज 5 वर्ष बताई जाती है। प्रदीप शाह के सत्ता के दौरान ही चन्द शासक देवीचंद ने गणराज्य पर आक्रमण कर लोहाबगढ़, व बधाणगढ़ में लूटपाट मचाई थी। हालांकि देवीचन्द को उस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा।

प्रदीप शाह के शासन के शासन के दौरान ही “पुरिया नैथाणी” का भी जिक्र आता है जिसे गढ़वाल का चाणक्य कहा जाता है। प्रदीप शाह की सत्ता के दौरान चंदवंश के शासक देवीचन्द की सत्ता के बाद कुमाऊँ की सत्ता कमजोर हो गई। कहते हैं कि प्रदीप शाह ने चंद राज्य के सहायता के लिए अपने वर्षों की शत्रुता को भी मिटा दिया था।




ललित शाह Lalit Shah

प्रदीप शाह के पश्चात उनका पुत्र ललित शाह पंवार वंश का राजा बना। उनके बारे में जानकारी मोलाराम के गढ़ राजवंश काव्य तथा सिख ग्रंथों से प्राप्त होती है। ललित शाह ने 1779 में सिरमौर राज्य पर आक्रमण कर बैराटगढ़ पर विजय प्राप्त की थी।

राजा ललित शाह के 4 पुत्र थेजयकृत शाह, प्रद्युम्नशाह, पराक्रम शाह तथा प्रीतमशाह। ललित शाह ने चन्दवंश की अस्थिर सत्ता को उखाड़ फेंक कर अपने पुत्र प्रद्युम्न शाह को कुमाऊँ के सिंहासन पर बैठाया।


प्रद्युम्न शाह

ललित शाह की मृत्यु के बाद गढ़राज्य के पंवार राजवंश की गद्दी के लिए संघर्ष हुआ। ललित शाह की मृत्यु के पश्चात् तुरन्त ही जयकृत शाह गणराज्य की गद्दी पर बैठा। जयकृत शाह और प्रद्युम्नशाह दोनों सौतेले भाई थे। इन दोनों में परस्पर शत्रुता थी।
प्रद्युमन शाह के कुमाऊं के सिंहासन पर बैठने के कारण जयकृत शाह ने प्रद्युम्न शाह के सिंहासन के ख़िलाफ़ विद्रोह किया । जिसके कारण प्रद्युमन शाह ने जयकृत शाह के ख़िलाफ़ गृहयुद्ध छेड़ दिया और जयकृत शाह को हराकर श्रीनगर की गद्दी पर बैठा।

इतिहास में सिर्फ प्रद्युम्नशाह ही एक ऐसा शासक है जिसने कुमाऊं तथा गढ़वाल दोनों पर शासन किया था। प्रद्युमन शाह के दौरान समस्त कुमाऊँ-गढ़वाल पर गोरखाओं का आक्रमण हो गया।
1790 ईस्वी में गोरखाओं ने पहले कुमाऊं को जीता और फिर 1804 में प्रद्युमन शाह को खुड़बड़ा के युद्ध में हराकर समस्त कुमाऊं – गढ़वाल को अपने अधिकार में ले लिया।



प्रद्युमन शाह की मृत्यु खुड़बड़ा के युद्ध में हुई तथा जिसके बाद गढ़वाल पर पंवार राजवंश की सत्ता भी समाप्त हो गई। गोरखाओं को हराने के लिए प्रद्युमन शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की मदद ली जिसके कारण समस्त कुमाऊँ-गढ़वाल पर ब्रिटिश राज रहा और पंवार नरेशों को राज करने के लिए टिहरी रियासत दे दी गई।


प्रद्युम्न शाह के बाद टिहरी रियासत के शासक

 


प्रद्युमन शाह के बाद परमार वंश (टिहरी रियासत) : Tihri Riyasat 



 

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