
भिटौली (Bhitoli)
भिटौली (Bhitoli): चैत्र का महीना आते ही पहाड़ों में एक अजीब-सी हलचल होती है। हर विवाहिता बेटी को मायके से आने वाली भिटौली (Bhitoli) का बेसब्री से इंतजार रहता है। यह सिर्फ उपहारों का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि मायके का स्नेह, बचपन की यादें, और मां की ममता का एहसास होता है। मिठाई, फल, नए कपड़े, और घर में बने पकवानों के साथ एक टोकरी भरकर मां अपने मायके से बेटी के लिए भेजती है। मगर भिटौली (Bhitoli) सिर्फ एक परंपरा भर नहीं, बल्कि इसके पीछे नरिया और देबुली की वो करुण कहानी छिपी है, जो सुनने वाले की आंखें नम कर देती है।
भिटौली (Bhitoli)
नरिया और देबुली की कहानी (Nariya Debuli Ki Kahani)
एक छोटे-से पहाड़ी गांव में देबुली और नरिया नाम के भाई-बहन रहते थे। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे थे। बचपन में साथ खेलना, एक ही थाली में खाना और रात को एक ही रजाई में सो जाना—इनकी दुनिया बस इतनी ही थी। लेकिन वक्त बीतता गया और देबुली बड़ी हो गई।
फिर वो दिन भी आया, जब देबुली की शादी तय हो गई। उसकी शादी बहुत दूर, किसी दूसरे गांव में कर दी गई। विदाई के दिन नरिया अपनी दीदी का पल्लू पकड़कर रो पड़ा, “दीदी, तू इतनी दूर चली जाएगी तो मैं किसके साथ खेलूंगा?” देबुली ने नरिया के आंसू पोंछे और कहा, “मुझे भूलना मत, मैं तुझे मिलने जरूर आऊंगी।” लेकिन ससुराल की जिम्मेदारियां बढ़ गईं और मायके आने के दिन कम होते गए। नरिया उदास रहने लगा। वो देखता कि गांव की दूसरी बेटियां त्योहारों पर अपने मायके आतीं, लेकिन उसकी दीदी कभी नहीं आई।
नरिया का मायके से तोहफा
नरिया की उदासी देखकर उसकी ईजा (मां) को चिंता होने लगी। एक दिन उसने नरिया से कहा, “जा बेटा, अपनी दीदी से मिल आ। बहुत दिन हो गए, उसे भी मायके की याद आती होगी।”
ईजा ने नरिया के लिए एक बड़ी टोकरी तैयार की—जिसमें पूरी, रायता, पुए, सिंगल, फल, साड़ी और बिंदी रखी। नरिया खुशी-खुशी दीदी के ससुराल के लिए निकल पड़ा। पहाड़ों में सफर आसान नहीं था। ऊँचे-नीचे रास्ते, जंगल और पहाड़ी नदियों को पार करते हुए, उसे वहां पहुंचने में दो-चार दिन लग गए।
जब देबुली सोई रह गई…
जब नरिया अपनी दीदी के घर पहुंचा, तो देखा कि देबुली गहरी नींद में सो रही थी। वो बहुत थकी हुई थी, इसलिए नरिया ने उसे जगाना ठीक नहीं समझा। उसने इंतजार किया, लेकिन वक्त तेजी से बीत रहा था।
शनिवार का दिन था और पहाड़ों में मान्यता थी कि इस दिन यात्रा नहीं करनी चाहिए। नरिया ने सोचा, “आज ही लौट जाऊं, नहीं तो मां चिंता करेगी।” उसने अपनी दीदी के लिए लाया हुआ सारा सामान दरवाजे पर रखा और बिना उसे देखे ही लौट गया।
“भै भूखों-मैं सिती…”
जब देबुली की आँख खुली, तो उसने देखा कि दरवाजे पर एक टोकरी रखी थी। जैसे ही उसने टोकरी खोली, उसमें से मायके के स्वादिष्ट पकवान और नरिया के प्यार की खुशबू उठी। वो एकदम घबरा गई और घर से बाहर दौड़ पड़ी।
“नरिया… ओ नरिया!”
वो गाँव की पगडंडियों पर भागी, जंगलों में खोजा, हर रास्ते पर नजर दौड़ाई, लेकिन नरिया बहुत दूर जा चुका था। उसे एहसास हुआ कि उसका भाई खाली पेट उसकी राह ताकता रहा और वो सोई रही। पछतावे से उसका दिल फटने लगा। वो रो-रोकर चिल्लाने लगी, “भै भूखों-मैं सिती… भै भूखों-मैं सिती…” (भाई भूखा रहा और मैं सोती रही)।
उसका दिल इस पीड़ा को सहन नहीं कर पाया और अंततः उसी रोते-रोते उसकी सांसें थम गईं।
देबुली का नया जन्म
कहते हैं कि देबुली की आत्मा इस दुख से मुक्त नहीं हो पाई। अगले जन्म में वो “घुघुति” नाम की एक पक्षी बनी, जो आज भी चैत्र के महीने में पहाड़ों में गूंजती है। जब भी उसकी आवाज आती है, ऐसा लगता है जैसे वो अभी भी पुकार रही हो—
“भै भूखों-मैं सिती…”
भिटौली: एक परंपरा, एक भावना
यही वजह है कि उत्तराखंड में भिटौली सिर्फ उपहार नहीं, बल्कि भाई-बहन के अटूट प्रेम की निशानी है। भिटौली के गीतों में आज भी देबुली की कहानी बसती है—
“इजु, दयोराणि जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोली को इजू को आलो भिटोई…”
हर विवाहिता चाहे किसी भी उम्र की हो, उसे मायके से आने वाली भिटौली का बेसब्री से इंतजार रहता है। क्योंकि यह सिर्फ एक टोकरी नहीं, बल्कि मायके का प्यार, बचपन की यादें और भाई-बहन का वो अटूट रिश्ता होता है, जिसे कोई भी दूरी मिटा नहीं सकती।
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