जिनकी कविताओं में पहाड़ की खूबसूरती ओर पहाड़ की व्यथा दोनों झलकती थी। जिनका प्रकृति के प्रति प्रेम का हर अंश उनकी कविता में झलकता था। एक आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी । जो मात्र 27 साल की उम्र में हिंदी साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ गए। जिन्हे हिमवंत पुत्र के नाम से जाना जाता था, ऐसे ही थे हिंदी के एक प्रख्यात कवि, कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल। (Chandra Kunwar Bartwal)
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चंद्र कुंवर बर्त्वाल | Chandra Kunwar Bartwal
मुझे प्रेम की अमर पुरी में अब रहने दो!
अपना सब कुछ देकर कुछ आँसू लेने दो!
प्रेम की पूरी, जहा रुदन में अमृत झरता,
जहा सुधा का स्रोत उपेक्षित सिसकी भरता!
चमोली जनपद के मालकोटी पट्टी के नागपुर गांव में 20 अगस्त 1919 को चंद्र कुंवर बर्त्वाल का जन्म हुआ। उनके पिता भूपाल सिंह बर्तवाल अध्यापक थे। वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थे। चंद्र कुंवर बर्तवाल की शुरुवाती शिक्षा गांव के स्कूल से हुई। उसके बाद पौड़ी के इंटर कॉलेज से उन्होंने 1935 में उन्होंने हाई स्कूल किया। उन्होंने उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने इतिहास विषय से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया। इस बीच उनकी अचानक तबीयत खराब हो गई और वे 1941 में अपनी आगे की पढ़ाई छोड़ गांव आ गए।
प्यारे समुंद्र मैदान जिन्हें
नित रहे उन्हें वही प्यारे
मुझ को हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे है।
चंद्र कुंवर बर्त्वाल को अपनी जन्मभूमि उत्तराखंड से बहुत लगाव था। उनका उत्तराखंड के प्रति प्रेम ऊपर लिखी पंक्तियों में साफ झलकता है। वहीं प्रकृति से उनका लगाव किसी से भी छुपा नहीं है। उन्होंने न जाने कितनी ही कविताएं अपने प्रकृति प्रेम पर लिख डाले। आज भी जब हिंदी की छायावादी कविताओं का जिक्र उठता है तो चंद्र कुंवर बर्त्वाल को याद किया जाता है।
नहीं कर पाए कविताओं का प्रकाशन
चंद्र कुंवर बर्त्वाल को लिखने का बचपन से ही काफी शौक था। वे प्रकृति की खूबसूरती को अपनी लेखनी के माध्यम से बयां करते थे। जो भी उनके मन में रहता कागज पर कलम की मदद से उकेर देते। कहा जाता है कि वे अपने लिखे काव्य, कविताओं को ना तो कहीं प्रकाशित करने के लिए देते ओर ना ही किसी पत्रिकाओं में देते।
चंद्र कुंवर बर्त्वाल कवितायें लिख ते और अपने पास रख लेते, बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज देते। इसे दुर्भाग्य ही कहे कि वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने उनकी 350 कविताओं का संग्रह संपादित किया । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था।
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कवि सुमित्रानंदन पंत व निराला से थी मित्रता
इतिहासकारों का मानना है कि चंद्र कुंवर बर्त्वाल का महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी मित्रता थी। कहा जाता है कि उन्होंने निराला जी के साथ 1939 से 1942 तक अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था । चंद्र कुंवर बर्तवाल ने 25 से अधिक गद्य लिखीं हैं। किन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे।
मैं न चाहता युग युग तक
पृथ्वी पर जीना
पर उतना जी लूँ
जितना जीना सुंदर हो
मैं न चाहता जीवनभर
मधुरस ही पीना
पर उतना पी लूँ
जिससे मधुमय अन्तर हो
ये पंक्तियाँ चंद्र कुंवर बर्त्वाल के समग्र जीवन को समझाने के लिया पर्याप्त हैं।
चंद्र कुंवर बर्त्वाल को छोटी उम्र में ही साहित्य की परख हो गई थी। जीवन की सच्चाई चंद्र कुंवर बर्तवाल बड़ी ही सादगी से अपनी कविताओं के माध्यम से बयां करते थे।
चंद्र कुंवर बर्त्वाल का निधन
मैं मर जाऊंगा पर मेरे
जीवन का आनंद नहीं।
झर जावेंगे पत्रकुसुम तरु
पर मधु-प्राण बसंत नहीं
14 सितम्बर 1947 को आकस्मिक 27 साल की उम्र में प्रकृति के चितेरे कवि इस दुनिया को अलविदा कह गए। चंद्र कुंवर बर्त्वाल ने बेहद ही कम उम्र में अपनी लेखनी के माध्यम से वो कर दिखया जिसे लिखने, बयां करने के लिए किसी साहित्यकार को दशकों का अनुभव चाइए होता है। हिमवंत पुत्र चंद्र कुंवर बर्तवाल को weगढ़वाली की ओर से शत शत नमन।
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