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History of Uttarakhand | उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास

History of Uttarakhand | उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास

History of Uttarakhand | उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास

History of Uttarakhand (उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास ): देव भूमि उत्तराखंड हिमालय की तलहटी पर बसा एक सुन्दर पहाड़ी राज्य है। यह राज्य पर्यटन के साथ-साथ अपनी संस्कृति, परंपराओं व पारस्परिक सौहार्द के लिए भी विश्वभर में जाना जाता है। उत्तराखंड राज्य में 13 जनपद है जिसकी ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण और शीतकालीन राजधानी देहरादून है।

उत्तराखंड राज्य में दो मंडल गढ़वाल मंडल और कुमाऊं मंडल। 4 मार्च 2021 को राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैण विधानसभा के सदन में तीसरे मंडल गैरसैण की घोषणा की गयी।

उत्तराखंड का परिचय

इस मंडल में गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग व चमोली और कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा और बागेश्वर जनपद को सम्मलित किया गया था। लेकिन राज्य की कमान मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के  हाथों में आते ही उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री की घोषणा का नोटिफिकेशन राज्यपाल के समक्ष जाने से पूर्व ही रोक लगा दी। इस आदेश के बाद अभी भी गढ़वाल में दो ही मंडल हैं।

उत्तराखंड राज्य का वर्तमान जितना रोचक व आकर्षण से परिपूर्ण है उतना ही रोचक व महान इसका इतिहास भी है। नीचे उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास संक्षिप्त रूप से दिया गया है। इनके बारे में और अधिक जानकारी के लिए आप उनसे संबधित लिंक पर क्लिक करके जानकारी ले सकते हैं।


उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास (History of Uttarakhand)

उत्तराखंड के प्रागैतिहासिक काल का इतिहास (Prehistoric history of Uttarakhand)

प्रागैतिहासिक काल को चित्र शैली का काल भी कहा जाता है क्योंकि इस काल में ज्यादातर सूचनाएं चित्र शैलियों के माध्यम से मिलती थी ऋग्वेद में उत्तराखंड को देवभूमि या मनीषियों की पुण्य भूमि और एतरेयपरिषद (आत्रेयब्राह्मण) में उत्तरकुरु ,व स्कंद पुराण में मानस खंड व केदारखंड दो भागों में बताया गया है जिसमें मानस खंड शब्द कुमाऊं और केदारखंड शब्द का प्रयोग गढ़वाल क्षेत्र के लिए किया गया है।

उत्तराखंड को इस काल में अन्य नाम ब्रह्मपुर उत्तरखंड और पाली भाषा में लिखे बौद्ध ग्रंथों में हिमवंत भी कहा गया है। इस काल में गढ़वाल क्षेत्र को बद्री का आश्रम और स्वर्ग आश्रम कहते थे और कुमाऊं क्षेत्र को कुर्मांचल नाम से संबोधित किया जाता था। उत्तराखंड में दो प्रसिद्ध विद्यापीठ भी स्थित थे बद्री का आश्रम और कण्वाश्रम।



कण्वाश्रम मालिनी नदी के तट पर था और यह स्थान राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम कहानी के लिए प्रसिद्ध है और इसी आश्रम में शकुंतला के पुत्र भरत का जन्म हुआ इनके बारे में शेर के दांत गिरने वाली कथा प्रचलित है और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा इसके साथ ही महाकवि कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम् की रचना भी इसी आश्रम में की थी।

वर्तमान समय में यह स्थान पौड़ी (चौकाघाट) के नाम से जानी जाती है उत्तराखंड राज्य कितना प्राचीन है इसके सबूत आज भी यहां मौजूद है जैसे अल्मोड़ा में स्थित लाखु गुफा, लवेथाप, पेट शाला और चमोली में स्थित गोरखा गुफा, मलारी गुफा और कीमिनी गांव, उत्तरकाशी में हुडली, बनकोट पिथौरागढ में रामगंगा घाटी

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उत्तराखंड का ऐतिहासिक काल (Historical period of Uttarakhand)

कुणिंद वंश / शक वंश /नाग वंश (Kuninda Dynasty / Shaka Dynasty / Naga Dynasty)

ऐतिहासिक काल के दौरान अनेक राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ। उत्तराखंड की पहली राजनीतिक शक्ति कुणिंद वंश थी और इस वंश का परम प्रतापी राजा अमोघभूति था। इस वंश ने सोने चांदी व तांबे के सिक्के बनाएं जिस पर राज कुणिंदस अमोघभूति लिखा था। चांदी के सिक्कों पर मृग और देवी के चित्र बनाए गए।

उसके बाद आए शक वंश जिन्होंने कई सूर्य मंदिर बनाए। जिनमें से कटारमल का सूर्य मंदिर सबसे प्रसिद्ध है जो अल्मोड़ा में स्थित है और शक संवत चलाया जो कि एक प्रकार का कैलेंडर है । इसके बाद बहुत कम समय तक राज करने वाले नागवंश और मौखरीवंश आए।  फिर आए वर्धन वंश जिसके राजा हर्षवर्धन थे। हर्षवर्धन के राज के समय बाणभट्ट ने अपनी पुस्तक हर्ष चरित लिखी।



चीनी यात्री ह्वेनसांग भी इसी समय भारत आए उन्होंने अपनी पुस्तक सी -यू -की (si-yu-ki) में उत्तराखंड को (po-li-hi-mo-pu-lo) कहा था । साथ ही हरिद्वार को मो-यो-ली (mo-yo-li ) कहा था। 648 ईसवी में राजा हर्षवर्धन की मृत्यु हो गई और उसका राज्य कई टुकड़ों में विभाजित हो गया। फिर इसके बाद कार्तिकेयपुर राजवंश का का उदय हुआ ।

 

कार्तिकेयपुर राजवंश (Kartikeyapur Dynasty)

कार्तिकेयपुर राजवंश को कुमाऊं का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है ,और इस राजवंश के प्रथम राजा ,राजा बसंत देव थे।  जिन्हें परमभदवारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि प्राप्त थी। उनकी शाखाएं कुछ इस प्रकार थी रजवार वंश जो असकोटा में था। मलल वंश दोती में ,और असंतिदेव वंश कतयूर में था। जिसमें सबसे ज्यादा प्रचलित रहा कत्यूरी वंश।

इस राजवंश ने लगभग 300 सालो सालों तक कार्तिकेय पुर को अपनी राजधानी बना कर रखा। जो वर्तमान का चमोली स्थित जोशीमठ है । इसी समय एक नया वंश पँवार वंश का उदय हो रहा था। और असुरक्षा को ध्यान में रखकर कार्तिकेयपुर वंश ने अपनी राजधानी कार्तिकेय पुर बदलकर कुमाऊं में बैजनाथ (बागेश्वर) और कार्तिकेयपुर के बीच की घाटी कत्यूरी घाटी में स्थापित कर दी ।



इस वंश के शासनकाल में आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखंड आए जिन्होंने विस्तृत रूप से बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया। जिसकी वजह से यहां बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हुआ ऐसी भी मान्यता है कि बद्रीनाथ पहले बौद्ध मठ हुआ करता था जिसे सम्राट अशोक ने बनवाया था आदि गुरु शंकराचार्य की मृत्यु 820 ईसवी में केदारनाथ में हुई। 

इसके बाद सन् 1515 में पँवार वंश के 37वें शासक अजय पाल आए जिन्होंने गढ़वाल के 52 गढ़ो को जीतकर बनाया गढ़वाल, जिसकी राजधानी पहले देवलगढ़ थी और 1517 में बदलकर श्रीनगर कर दी गई इसके बाद इसी वंश के शासक रहे बलभद्र को ‘बहलोल लोदी’ ने शाह की उपाधि दी और इसके बाद पवॉर वंश के शासकों ने अपने नाम के आगे शाह लगाना शुरू कर दिया।

इसी बीच पश्चिमी नेपाल के राजा अशोक चलल ने कत्यूरी वंश पर आक्रमण कर दिया और कुछ हिस्सों पर अधिकार भी कर लिया। और कत्यूरी वंश का आखिरी शासक था ब्रह्मदेव जिसे वीरमदेव और वीर देव भी कहते थे। जब 1896 में तैमूर लंग का आक्रमण भारत में हुआ तो कत्यूरी वंश का आखिरी शासक हरिद्वार में शहीद हो गया और यहीं कत्यूरी वंश की समाप्ति हो गई। आगे पढ़ें। 

कुमाऊं का चंद राजवंश (Chand Dynasty of Kumaon)

इसके बाद आया चंद वंश ,चंद वंश का पहला राजा सोमचंद था और उनकी राजधानी चंपावत मे थी। चंद वंश का राजचिह्न गाय थी। इसी राजवंश में एक राजा भीष्म चंद आए इन्होंने राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा बदलने की सोची और इसी उद्देश्य से उन्होंने खगमरा किले का निर्माण भी करवाया ,किंतु जब यह किला बनकर तैयार हुआ तो राजा भीष्म चंद की मृत्यु हो गई ।



इसके बाद इसी वंश के राजा बालों कल्याण चंद ने चंपावत राजधानी को बदलकर अल्मोड़ा कर दिया और वहां लाल मंडी किला और मल्ला महल किले का निर्माण किया। मुगल कालीन साहित्य तुजुक जहांगीर और शाहनामा से ही पता चलता है कि चंद राजाओं के मुगल राजाओं से भी संबंध थे 1790 में चंद्र वंश के अंतिम राजा महेंद्र चंद्र को हराकर गोरखाओं ने कुमाऊं क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। आगे पढ़ें। 

गढ़वाल का पंवार राजवंश (Panwar dynasty of Garhwal)

इसके बाद आती है नवीं शताब्दी जिसमें गढ़वाल 52 गढ़ो में बट गया था इसमें सबसे शक्तिशाली राजा थे भानु प्रताप । इसी दौरान गुजरात का एक शासक कनक पाल यहां आया जिसने भानु प्रताप की पुत्री से शादी कर यही बचने की सोची जिसके पश्चात कनक पाल ने पवॉर व परमार वंश की स्थापना की और चांदपुर जो वर्तमान समय में गैरसैंण है उसको अपनी राजधानी बनाया।

पंवार वंश का सबसे शक्तिशाली राजा अजयपाल था जिसने इन 52 गढ़ों को जीतकर अपनी राजधानी देवलगढ़ और बाद में श्रीनगर स्थानांतरित की। उसके बाद से ही पंवार वंश के राजा सभी श्रीनगर गढ़वाल से ही गढ़वाल रियासत की सत्ता संभालने लगे। 

इसके बाद 1736 में राजा महापति शाह की मृत्यु के बाद उनके अल्प वयस्क पुत्र पृथ्वीपति शाह के को राजा बनाया गया। अल्प वयस्क होने के कारण उन्हें एक संरक्षिका रानी कर्णावती के साथ रखा गया ।

1736 में ही मुगल सम्राट के सेनापति नवजातखान ने दून घाटी पर आक्रमण कर दिया पर तब रानी कर्णावती ने यह हमला संभाल लिया और साथ ही कई मुगल सैनिकों को बंदी बना लिया था जिनकी नाक रानी कर्णावती के आदेश पर कटवा दी गई थी इसी वजह से रानी कर्णावती को नाक कटी रानी भी कहा जाता था। आगे पढ़ें। 

उत्तराखंड पर गोरखाओं का शासन (Gurkhas rule over Uttarakhand)

1790 में गोरखाओ ने गढ़वाल पर आक्रमण किया और उन्हें पराजय मिली ,1803 में गढ़वाल जब भयंकर भूकंप से पीड़ित था तो गोरखाओ ने फिर एक बार गढ़वाल पर आक्रमण किया और इस बार कुछ हिस्सों पर जीत भी पाली 14 मई 1804 में राजा प्रद्युमन शाह ने देहरादून के खुड़बूड़ा मैदान में गोरखाओ के खिलाफ युद्ध लड़ा जिसमें उनकी मृत्यु हो गई इसके पश्चात ज्यादातर उत्तराखंड गोरखाओ के अधीन हो गया। आगे पढ़ें। 

टिहरी रियासत (Tehri State)

प्रद्युमन शाह के बाद उनके पुत्र सुदर्शन शाह आए जिन्होंने अंग्रेज गवर्नर लॉर्ड हेसटिंगज (Hastings) से मदद मांगी और उनकी मदद द्वारा अक्टूबर 1814 में ब्रिटिश सेना ने तकरीबन 2-4 महीने के युद्ध के पश्चात गढ़वाल को एक बार फिर स्वतंत्र करा दिया किंतु 7 लाख युद्ध व्यय की भरपाई ना होने के कारण ब्रिटिश गवर्नमेंट ने पूरे हिस्से पर कब्जा कर लिया था। 
इसे भी पढ़ें – कुमाऊं में अंग्रेजी कमिश्नर की सूचि 



मजबूरन राजधानी श्रीनगर से बदलकर टिहरी करनी पड़ी और परमार वंश की जागीर को टिहरी रियासत कहा जाने लगा इसके अगले वर्ष 1815 में अंग्रेजों ने कुमाऊं को गोरखाओ से जीत लिया था और फिर 28 नवंबर 1815 में चंपारण बिहार में ब्रिटिश गवर्नमेंट और गोरखाओ के बीच एक संधि ‘संगौली ‘की संधि हुई जिसके फलस्वरुप टिहरी रियासत को छोड़ सब कुछ ब्रिटिश  सरकार के अधिकार में आ गया। आगे पढ़ें। 

उत्तराखंड स्वतंत्रता संग्राम (1815-1947)

1815 में ब्रिटिश हुकूमत के अंतर्गत आने के बाद से ही उत्तराखंड के वीरों ने अपनी स्वतंत्रता की लौ जलाए रखी। 19वीं शताब्दी से लेकर 1947 तक, यहां के जनजातीय समुदायों, किसानों, मजदूरों, और शिक्षित युवाओं ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। इस संघर्ष में कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए, जिनमें कुली बेगार आंदोलन, टिहरी रियासत आंदोलन, वन आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन प्रमुख रहे।

1815 में, गोरखा शासन के पतन के बाद, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं और गढ़वाल के बड़े हिस्से को अपने साम्राज्य में मिला लिया। हालांकि, स्थानीय जनता ब्रिटिश नीतियों से असंतुष्ट थी। उच्च कराधान, भूमि हड़पने की नीतियां और स्थानीय संसाधनों का दोहन इस असंतोष के प्रमुख कारण थे।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी उत्तराखंड के वीरों ने विद्रोह किया। इस क्रांति में गढ़वाल और कुमाऊं के कई वीरों ने भाग लिया, लेकिन ब्रिटिश शक्ति के आगे यह संग्राम दबा दिया गया।

1857 की क्रांति के बाद, उत्तराखंड में राजनीतिक चेतना धीरे-धीरे विकसित होने लगी। शिक्षित युवाओं में राष्ट्रवाद का बीज अंकुरित होने लगा, और वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठनों से जुड़ने लगे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, यहां के लोग सामाजिक सुधारों और स्वराज्य की मांग करने लगे।

1900-1920: कुली बेगार आंदोलन और अन्य सामाजिक संघर्ष

20वीं शताब्दी की शुरुआत में उत्तराखंड के जनजातीय और ग्रामीण समुदायों में अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष और भी बढ़ गया। इस काल में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं—

1. कुली बेगार आंदोलन (1921)

ब्रिटिश सरकार द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों में कुली बेगार प्रथा लागू की गई थी, जिसमें स्थानीय लोगों को बिना वेतन के जबरन सामान ढोने के लिए मजबूर किया जाता था। 1921 में, गोविंद बल्लभ पंत और अन्य नेताओं के नेतृत्व में इस अन्यायपूर्ण प्रथा के खिलाफ व्यापक आंदोलन छेड़ा गया। इस आंदोलन के दबाव में अंग्रेजों को इसे समाप्त करना पड़ा।

2. डोला-पालकी आंदोलन

यह आंदोलन समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और जातिगत भेदभाव के खिलाफ था। उच्च जातियों द्वारा निचली जातियों को पालकी में यात्रा करने की अनुमति नहीं थी, जिसे इस आंदोलन ने चुनौती दी।

1920-1930: टिहरी रियासत में विद्रोह और वन आंदोलन

ब्रिटिश राज के अलावा, टिहरी गढ़वाल में राजा नरेंद्र शाह की शाही सत्ता भी जनता के उत्पीड़न का कारण बनी।

1. टिहरी रियासत आंदोलन

टिहरी रियासत में श्रीदेव सुमन ने प्रजा की स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाई। उन्होंने लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग की, लेकिन राजा ने उन्हें 1944 में जेल भेज दिया। वहां उन्हें क्रूरतापूर्वक प्रताड़ित किया गया, और अंततः 25 जुलाई 1944 को जेल में उनका बलिदान हो गया। श्रीदेव सुमन का यह बलिदान उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम का एक अमर अध्याय बन गया।

2. वन आंदोलन

उत्तराखंड में ब्रिटिश सरकार ने जंगलों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर दिया था, जिससे स्थानीय लोगों को आजीविका के साधनों से वंचित कर दिया गया। 1920-30 के दशक में कई गांवों में वन आंदोलन हुए, जिसमें महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।

1930-1947: भारत छोड़ो आंदोलन और उत्तराखंड की भूमिका

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उत्तराखंड के युवाओं ने महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया। कुमाऊं और गढ़वाल के छात्र इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। नैनीताल, अल्मोड़ा और पौड़ी में बड़े प्रदर्शन हुए, जिनमें कई स्वतंत्रता सेनानियों को जेल भेजा गया। 1947 में देश के आजाद होने के साथ उत्तराखंड भी आजाद हो गया। हालाँकि टेहरी रियासत 1949 तक स्वंतत्र रही मगर आखिरकार उसे भी भारतीय गणराज्य में मिला लिया गया।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन (1947-2000): संघर्ष से राज्य तक का सफर

उत्तराखंड का इतिहास केवल स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं है, बल्कि आज़ादी के बाद भी यहां के लोगों को अपने अधिकारों और पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ा। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा) के लोगों ने अपनी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए अलग राज्य की मांग की। यह संघर्ष कई दशकों तक चला और अंततः 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड को भारत के 27वें राज्य के रूप में मान्यता मिली।

1947-1970: अलग पहचान की मांग की शुरुआत

आजादी के बाद उत्तराखंड के लोग इस उम्मीद में थे कि उन्हें विकास के नए अवसर मिलेंगे, लेकिन जल्द ही यह अहसास हो गया कि पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याएं अनदेखी की जा रही हैं। भू-स्खलन, बेरोजगारी, पलायन, बुनियादी सुविधाओं की कमी और सांस्कृतिक असमानता जैसी चुनौतियां लगातार बनी रहीं।

मुख्य समस्याएं:

  1. विकास की अनदेखी: पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण उत्तराखंड के गांवों में सड़कें, अस्पताल, और शिक्षा सुविधाएं विकसित नहीं हो रही थीं।

  2. पलायन: रोजगार के अभाव में पहाड़ों से बड़ी संख्या में लोग मैदानी इलाकों (जैसे दिल्ली, लखनऊ, देहरादून) की ओर पलायन करने लगे।

  3. प्राकृतिक संसाधनों का शोषण: उत्तराखंड के जंगलों और नदियों पर सरकार और बाहरी कंपनियों का नियंत्रण था, जिससे स्थानीय लोगों को कोई लाभ नहीं मिल रहा था।

  4. प्रशासनिक उपेक्षा: उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ (तब उत्तर प्रदेश की राजधानी) से सैकड़ों किलोमीटर दूर थी, जिससे प्रशासनिक कार्यों में देरी और अव्यवस्था बनी रहती थी।

1950 और 1960 के दशक में उत्तराखंड में अलग राज्य की मांग धीरे-धीरे उठने लगी, लेकिन इसे कोई बड़ा समर्थन नहीं मिला।

1970-1990: आंदोलन की चिंगारी भड़क उठी

1970 के दशक में उत्तराखंड में कई जन आंदोलनों की शुरुआत हुई, जिनमें प्रमुख रहे चिपको आंदोलन और खनन विरोधी आंदोलन

1. चिपको आंदोलन (1973)

सुंदरलाल बहुगुणा और गौरा देवी के नेतृत्व में चला यह आंदोलन जंगलों को बचाने का था। स्थानीय महिलाएं पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गईं ताकि बाहरी कंपनियां जंगल न काट सकें। यह आंदोलन न केवल पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक बना, बल्कि इसने उत्तराखंड में जन आंदोलनों को नई शक्ति भी दी।

2. खनन विरोधी आंदोलन (1980 के दशक)

उत्तराखंड के कई पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर खनन शुरू हो गया, जिससे पर्यावरण को नुकसान हो रहा था और स्थानीय लोगों की आजीविका पर खतरा मंडरा रहा था। इस आंदोलन के कारण सरकार को कई खनन परियोजनाओं पर रोक लगानी पड़ी।

1990-2000: उत्तराखंड राज्य आंदोलन अपने चरम पर

1990 के दशक में उत्तराखंड की जनता की नाराजगी और आंदोलन तेजी से बढ़ने लगे। इस दौरान कुछ बड़ी घटनाएं हुईं, जिन्होंने आंदोलन को निर्णायक मोड़ दिया।

1. मसूरी गोलीकांड (1994)

2 अक्टूबर 1994 को जब उत्तराखंड आंदोलनकारी अपनी मांगों को लेकर मसूरी में एक रैली निकाल रहे थे, तब पुलिस ने उन पर गोलियां चला दीं। इसमें कई निर्दोष प्रदर्शनकारी शहीद हो गए।

2. रामपुर तिराहा कांड (1994)

2-3 अक्टूबर 1994 को दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों पर मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा में पुलिस ने हमला कर दिया। महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया और कई लोगों की मौत हो गई। इस घटना ने पूरे उत्तराखंड को झकझोर कर रख दिया और आंदोलन और भी उग्र हो गया।

उत्तराखंड आंदोलन में महिलाओं और युवाओं की विशेष भूमिका रही। इंद्रमणि बडोनी, जिन्हें उत्तराखंड आंदोलन का गांधी कहा जाता है, ने इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाया।

9 नवंबर 2000: उत्तराखंड बना भारत का 27वां राज्य

आंदोलन के बढ़ते दबाव और जनता की लगातार मांग के चलते भारत सरकार ने उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने का निर्णय लिया। 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग कर एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया।

कुमाऊं और गढ़वाल शब्द की उत्पत्ति (Origin of the words Kumaon and Garhwal)

कुमाऊं (Kumaon)

ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु ने अपना कुरमावतार लेकर चंपावत के निकट स्थित चंपावती नदी के तट पर कुर्म पर्वत पर 3 वर्षों तक तपस्या की थी तभी से इसका नाम कुर्मांचल पड़ा जिसे आगे चलकर कुमाऊं कहा जाने लगा कुर्मावतार भगवान विष्णु का कछुए का रूप था कुर्म पर्वत या कामदेव पर्वत पर आज भी भगवान विष्णु के पैरों के निशान अंकित है पहले यह नाम सिर्फ चंपावत और उसके आसपास के इलाके को ही कहा जाता था.

पर जब से चंद वंश का शासन हुआ तो उनका जितना भी साम्राज्य था वह कहलाया कुर्मांचल और उनका साम्राज्य उस समय अल्मोड़ा पिथौरागढ़ नैनीताल तक फैला हुआ था उस समय के मुगल शासक भी इसे कुमाऊं कहते थे इस बात का जिक्र आइने-ए-अकबरी में भी मिलता है।



पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने यहां कुर्मावतार में तपस्या करने के कारण इस स्थान का नाम कुर्मांचल पड़ा किंतु शिलालेखों और ताम्र पत्रों से यह ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र का नाम कुर्मांचल या कुमाऊं बाद में पड़ा क्योंकि सम्राट समुद्रगुप्त के पर्याप्त प्रशस्त लेख में इस प्रांत को कार्तिकेयपुर कहा गया है.
तालेश्वर में भी उपलब्ध पांचवी और छठी शताब्दी के ताम्र पत्रों में भी कार्तिकेयपुर और ब्रह्मपुर नामों का उल्लेख मिलता है.चीनी यात्री ह्वेनसांग जब इस क्षेत्र में आया तो उसने भी इस क्षेत्र को ब्रह्मपुर नाम से संबोधित किया।

गढ़वाल (Garhwal)

गढ़वाल क्षेत्र को पहले 52 गढ़ो का देश कहा जाता था और तब यहां पर 52 राजाओं का शासन हुआ करता था जो अलग-अलग राज्यों के स्वतंत्र राजा थे जो गढ़ थे वह छोटे-छोटे किले हुआ करते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग जब छठवीं शताब्दी में भारत आया था तो उसने भीअपनी पुस्तक में लिखा कि यहां के जो राजा थे उनके बीच में आपस में लड़ाई चला करती थी.

इनकी आपसी लड़ाई का ही फायदा उठाकर परमार वंश के प्रतापी राजा अजय पाल ने इन सभी 52 गढ़ो को जीतकर अपने अधिकार में ले लिया और सभी गढो़ का एक छत्र स्वामी बन गया और अजय पाल कहलाया गढ़वाला और उसका यह क्षेत्र ही कहलाया गढ़वाल।

गढ़वाल के 52 गढ़ (52 Forts of Garhwal)

1. नाम -नागपुर गढ़, स्थान- नागपुर और संबंधित जाति – नाग जाति।
2. कोल्लीगढ़ , स्थान बछणसँयू और संबंधित जाति बछवाण बिष्ट।
3. रावडगढ़, बद्रीनाथ के निकट और रवाडी।
4. फल्याण गढ़, फलदा कोट ,फल्याण जाति के ब्राह्मण।
5. बांगर गढ़ ,बांगर ,राणा जाती।
6.कुइली गढ़, कुइली, सजवाण जाति ।
7. भरपूर गढ़ ,भरपूर, सजवाण जाति ।
8. कुजणी गढ़ ,कुजणी, सजवाण जाती।
9.सिलगढ़, सिलगढ़, सजवाण जाति ।
10.मुंगरा गढ़, रवॉई, रावत जाति ।
11. रैका गढ़, रैका रमोला जाति।
12.मौलया गढ़, रमोली, रमोला जाति ।
13. उप्पू गढ़, उदयपुर, चौहान जाति।
14.नाला गढ़, देहरादून,-।
15.सांकरी गढ़ -रवॉई -राणा जाति ।



16.रामीगढ़, शिमला, राणा जाति ।
17. बिराल्टा ,जौनपुर, रावत जाति।
18. चांदपुर गढ़ ,चांदपुर, सूर्यवंशी (राजा भानु प्रताप सिंह)।
19. चौंड़ागढ़ ,चांदपुर ,चौंदाल ।
20.तोपगढ़ ,चांदपुर, तोपाल जाति।
21.राणीगढ़,राणीगढ़ पट्टी,तोपाल जाती ।
22. श्री गुरु गढ़ ,सलाण परिहार जाती।
23. बधाण गढ़, बधाण, बधाणी जाति ।
24.लोहबाग गढ़, लोहबाग, नेगी जाति ।
25.दशोली गढ़, दशोली, -।
26.कुंडारागढ़,नागपुर,कुंडारी जाति ।
27.धौनागढ़, – ,धौनयाल जाति ।
28.रतन गढ़, कुजणी, धमादा जाति ।
29.एरासू गढ़, श्रीनगर के पास,- ।
30.इडिया गढ़, रवॉई बड़कोट, इडिया जाति ।



31.लंगूर गढ़, लंगूर पट्टी,- ।
32.बाग गढ़, गंगा सलाणा, बागूड़ी जाति ।
33.गढ़कोट गढ़, मल्ला ढांगू ,बगडवाल ।
34.गढ़ताग गढ़, टकनौर, भोटिया जाति ।
35.बनगढ़ गढ़, बनगढ़, – ।
36.भरदार गढ़, भरदार, – ।
37. चौंद कोटगढ़,चौंदकोट, चौंदकोट जाति ।
38.नयाल गढ़, कटूलसँयू, नया जाति ।
39.अजमीर गढ़, अजमेर पट्टी ,पयाल जाती।
40.कांडा गढ़, – ,रावत जाति ।
41.सावलीगढ़, सावली खाटली, – ।
42.बदलपुर गढ़, बदलपुर , – ।
43.संगेला गढ़, – ,संगेला जाति ।
44. गुजडू गढ़, गुजडू, – ।
45. जौट गढ़, देवपुरी, – ।
46. देवलगढ़ – देवलगढ़
47देवलगढ़- देवलगढ़
48.जौलपुर – देवलगढ़
49. चंपागढ़ देवलगढ़
50.दादराक्वार गढ़
51.भवना गढ़
52.लोदन गढ़

उत्तराखंड का सम्पूर्ण इतिहास – प्रश्नोत्तर (FAQ) (Complete history of Uttarakhand)

प्रश्न 1: उत्तराखंड कब एक अलग राज्य बना?

उत्तर: उत्तराखंड 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर भारत का 27वां राज्य बना।

प्रश्न 2: उत्तराखंड का नाम पहले क्या था?

उत्तर: अलग राज्य बनने से पहले इसे उत्तरांचल कहा जाता था। 2007 में इसका नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया।

प्रश्न 3: उत्तराखंड का ऐतिहासिक महत्व क्या है?

उत्तर: उत्तराखंड को वेदों, उपनिषदों और रामायण-महाभारत की भूमि कहा जाता है। यहाँ स्थित चारधाम (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री) इसे धार्मिक रूप से विशेष बनाते हैं।

प्रश्न 4: प्राचीन काल में उत्तराखंड पर किन-किन राजवंशों ने शासन किया?

उत्तर: उत्तराखंड पर कई महत्वपूर्ण राजवंशों का शासन रहा, जिनमें प्रमुख हैं –

प्रश्न 5: ब्रिटिश शासन का उत्तराखंड पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर: ब्रिटिश शासन के दौरान 1815 में गोरखाओं को हराकर अंग्रेजों ने कुमाऊं और गढ़वाल पर कब्जा कर लिया। उन्होंने नैनीताल और मसूरी जैसी हिल स्टेशनों को विकसित किया और यहाँ चाय के बागान भी लगाए।

प्रश्न 6: भारत की स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड का क्या योगदान रहा?

उत्तर: उत्तराखंड के कई स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जैसे –

प्रश्न 7: उत्तराखंड के अलग राज्य बनने की मांग क्यों उठी?

उत्तर: उत्तर प्रदेश सरकार की उपेक्षा, विकास की कमी, बुनियादी सुविधाओं की समस्याएं और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण लोगों में अलग राज्य की मांग बढ़ी। इसके चलते उत्तराखंड आंदोलन (उत्तराखंड आंदोलन) शुरू हुआ।

प्रश्न 8: उत्तराखंड आंदोलन के प्रमुख घटनाक्रम कौन-कौन से थे?

उत्तर:

प्रश्न 9: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत क्या है?

उत्तर: उत्तराखंड की संस्कृति लोकगीतों, नृत्यों और त्योहारों में समृद्ध है –

प्रश्न 10: उत्तराखंड के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल कौन-कौन से हैं?

उत्तर: उत्तराखंड के कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं –

प्रश्न 11: वर्तमान में उत्तराखंड की स्थिति कैसी है?

उत्तर: उत्तराखंड पर्यटन, कृषि और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए प्रसिद्ध है। देहरादून, हरिद्वार और ऋषिकेश प्रमुख शैक्षिक, आध्यात्मिक और आर्थिक केंद्र हैं। राज्य तेजी से विकास कर रहा है और अपनी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखते हुए आगे बढ़ रहा है।

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