उत्तराखंड, अपनी अनोखी परंपराओं और विविध लोक संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के पहाड़ी क्षेत्रों में दीपावली के ठीक 11 दिन बाद “इगास बग्वाल” का पर्व बड़े हर्षोल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इसे “बूढ़ी दीपावली” या “हरबोधनी एकादशी” भी कहा जाता है। इस पर्व का उत्तराखंड की संस्कृति में विशेष स्थान है और यह स्थानीय रीति-रिवाजों का प्रतीक है। इस दिन को लेकर कई पौराणिक मान्यताएं और ऐतिहासिक घटनाएं प्रचलित हैं, जो इसे और भी महत्वपूर्ण बनाती हैं।
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इगास बग्वाल का परिचय
“इगास बग्वाल” (Igas Bagwal) उत्तराखंड के लोक जीवन में गहराई से जमी हुई एक अनूठी परंपरा है। गढ़वाल क्षेत्र में कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन यह पर्व मनाया जाता है, जिसे स्थानीय बोली में “इगास” कहा जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु अपनी चार महीने की योग निद्रा से जागते हैं, और इस अवसर पर शुभ कार्यों का आरंभ होता है। विवाह, मुंडन, और गृहप्रवेश जैसी मांगलिक गतिविधियां इसी दिन से शुरू होती हैं।
इगास बग्वाल का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में इगास बग्वाल को लेकर कई पौराणिक मान्यताएं हैं:
- भगवान श्रीराम की अयोध्या वापसी: जब भगवान श्रीराम अयोध्या लौटे थे, तो कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली मनाई गई थी। लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय गाँवों में यह शुभ समाचार 11 दिन बाद, कार्तिक शुक्ल एकादशी को पहुँचा। तब वहाँ के लोगों ने इसी दिन दीपावली का उत्सव मनाया, जो इगास बग्वाल के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
- माधो सिंह भंडारी की विजय: एक और मान्यता के अनुसार, गढ़वाल के वीर योद्धा माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने तिब्बत के दामाघाट घाट में युद्ध जीतने के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को अपनी जीत का जश्न मनाया। इसके बाद यह दिन गढ़वाल के लोगों के लिए विजय और गौरव का प्रतीक बन गया।
भैलो खेलने की परंपरा: इगास बग्वाल का मुख्य आकर्षण
इगास बग्वाल (Igas Bagwal) में “भैलो” खेलने की परंपरा विशेष रूप से आकर्षक और उत्साहवर्धक है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में चीड़ की लकड़ियों से मशालें बनाकर रस्सियों में बांधकर सिर के ऊपर घुमाई जाती हैं, इसे ही “भैलो खेलना” कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि भैलो खेलते समय माँ लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और घर-परिवार में सुख-समृद्धि का वास होता है। इस प्रथा को “अंधया” भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है अंधकार को दूर करना। यह खेल उत्सव का माहौल बना देता है और इसकी रोशनी चारों ओर खुशी और उत्साह का संचार करती है।
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गोवंश पूजन और पारंपरिक व्यंजन
इगास बग्वाल का दिन गोवंश की पूजा से आरंभ होता है। ग्रामीण अपने पालतू मवेशियों को स्नान कराते हैं और फिर हल्दी और सरसों का तेल लगाकर उनका श्रृंगार करते हैं। इसके बाद उन्हें विशेष आहार जैसे भात, झंगोरा, और मंडुवा दिया जाता है, जिसे “गेग्नास” कहते हैं। इसके अलावा, इस दिन विशेष पकवान जैसे पूड़ी, सवाली, पकोड़ी, और भुड़ा बनाए जाते हैं। इन पारंपरिक व्यंजनों को गांव के लोगों में बांटा जाता है और इस तरह यह पर्व एक सामूहिक उत्सव का रूप ले लेता है।
सांस्कृतिक महत्व और सामुदायिक एकता का प्रतीक
इगास बग्वाल उत्तराखंड के ग्रामीण समाज में सामुदायिक एकता और सामाजिक मेल-जोल का पर्व है। गाँव के लोग एक साथ इकट्ठा होकर नाच-गान करते हैं, और इस तरह से अपने सांस्कृतिक धरोहर को सजीव रखते हैं। इस दिन पारंपरिक गीत गाए जाते हैं और गाँव के बुजुर्गों द्वारा कहानियां सुनाई जाती हैं, जिससे युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का अवसर मिलता है। पर्व में भैलो खेलने की परंपरा और पकवानों का आदान-प्रदान उत्सव में चार चांद लगा देते हैं।
इगास बग्वाल और आधुनिक समाज में इसकी प्रासंगिकता
आधुनिक समय में भी इगास बग्वाल का महत्व कम नहीं हुआ है। उत्तराखंड से बाहर रहने वाले प्रवासी भी इस पर्व को विशेष रूप से मनाते हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से इसे लोकप्रिय बना रहे हैं। इस पर्व ने उत्तराखंड की पहचान को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया है और संस्कृति की इस समृद्ध धरोहर को नई पीढ़ी तक पहुँचाया है।
इगास बग्वाल का भविष्य: संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता
हालांकि इगास बग्वाल (Igas Bagwal) का महत्व उत्तराखंड के लोगों में गहरा है, परंतु इसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए इसके संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता है। उत्तराखंड सरकार और विभिन्न सांस्कृतिक संगठनों द्वारा इस पर्व के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया जा रहा है। ऐसे कार्यक्रम और उत्सव जो नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने में सहायक हैं, उन्हें और भी अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
इगास बग्वाल केवल एक पर्व नहीं, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है और स्थानीय संस्कृति के संरक्षण का संदेश देता है। इस पर्व को मनाने के माध्यम से उत्तराखंड के लोग अपनी परंपराओं को जीवित रखते हैं और उन पर गर्व महसूस करते हैं। इगास बग्वाल, उत्तराखंड की लोक संस्कृति में अपनी पहचान बनाए रखने और आने वाली पीढ़ियों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ने का एक अवसर है।
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