
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली (Veer Chandra Singh Garhwali) : गढ़वाल राइफल्स का वो जवान जिसने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया, ओर अंग्रेजों को जीत दिलाई। वो वीर सैनिक जिसने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया।
वो सैनिक जिसे अंग्रेजों ने 14 साल के कारावास की सजा सुनाई। जिसका अपनी ही जन्म भूमि यानी गढवाल में प्रवेश करने पर प्रतिबंध था। वो वीर जवान जिसे आज पूरा देश वीर चंद्र सिंह गढ़वाली (Chandra Singh Garhwali) के नाम से जानता है।
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली | Veer Chandra Singh Garhwali
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का जन्म / मूल नाम (Birth / Original Name of Veer Chandra Singh Garhwali)
25 दिसम्बर 1891 में जन्में वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के लिये याद किया जाता है। इनका मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था। इन्हें मूलतः पेशावर कांड के नायक के तौर पर याद किया जाता है। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को गढ़वाली उपनाम कैसे दिया गया और क्या है पेशावर कांड वो भी बतायेंगें आपको लेकिन पहले बतातें हैं कि आखिर कौन थे चंद्र सिंह भंडारी जिन्हें पूरा उत्तराखण्ड व भारत वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम से जानता है।
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली गढ़वाल राइफल में भर्ती (Veer Chandra Singh Garhwali recruited in Garhwal Rifles)
तत्कालिन समय में गढवाल की राजधानी रहे चांदपुर गढ़ी में जन्में चंद्र सिंह भंडारी (वीर चंद्र सिंह गढ़वाली) 13 सितंबर 1914 को सेना में भर्ती होकर गढ़वाल राइफल्स का हिस्सा बनें। सेना में भर्ती होने के एक साल बाद ही 1 अगस्त 1915 में चन्द्र सिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया।
6 महीने बाद चंद्र सिंह भंडारी ( वीर चंद्र सिंह गढ़वाली) 1 फरवरी 1916 को फ्रांस से वापस लैंसडाउन आ गये। वहीं प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्र सिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी।
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इसके एक साल बाद यानी 1918 में उन्होनें बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। इस दौरान प्रथम विश्वयुद्ध अपने समाप्ति के दौर में था। विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया गया था। वहीं कई सैनिंकों की रैंक भी कम कर दी थी। जिसमें चंद्र सिंह भंडारी ( वीर चंद्र सिंह गढ़वाली) भी शामिल थे।
यह एक ऐसा कारण था कि चंद्र सिंह भंडारी ( वीर चंद्र सिंह गढ़वाली) ने सेना को छोडने का मन बना लिया था। लेकिन बड़े अधिकारियों द्वारा उन्हें समझाया गया कि जल्द ही उनका प्रमोशन किया जायेगा, साथ ही उन्हें कुछ समय के लिये अवकाश भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्र सिंह गढ़वाली महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।
चंद्र सिंह भंडारी यहाॅ महात्मा गांधी के विचारों से काफी प्रभावित हुए। जिससे उनके भीतर स्वदेश प्रेम का जज्बा पैदा हो गया था। इसी दौरान 1920 में चंद्र सिंह भंडारी को उनकी बटालियन के साथ बजीरिस्तान भेज दिया गया। इस दौरान इनकी पुनः तरक्की हो गयी। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।
पेशावर कांड (Peshawar incident)
बात 1930 की है, स्वतंत्रता का आंदोलन जोरों पर था। पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज आंदोलन को कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। आंदोलन को खत्म करने के लिये अ्रगेजों ने बटालियन के साथ चंद्र सिंह भंडारी को 23 अप्रैल 1930 को पेशावर भेज दिया।
अंग्रेजों ने हुक्म दिया कि आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर चंद्र सिंह भंडारी ( वीर चंद्र सिंह गढवाली) ने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया।
इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाल बटालियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया। साथ ही इसी घटना के बाद चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।
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अंग्रेजों ने कर ली थी चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति जप्त
अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान वीर चंद्र सिंह गढ़वाली (Chandra Singh Garhwali) की सारी सम्पत्ति जप्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।
गढवाल में प्रवेश था वर्जित (Entry into Garhwal was forbidden)
आदेश न मानने वाले सैनिकों पर अंग्रेजो ने कार्यवाही की। वहीं वीर चंद्र सिंह को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद (वर्तमान पाकिस्तान ) की जेल में भेज दिया। इस दौरान इन्हें कई बार अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। बाद में इनकी सजा कम कर दी गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया।
वीर चंद्र सिंह जेल से तो आजाद हो गये थे। लेकिन उनका गढवाल में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें जगह-जगह भटकना पडा। इस दौरान यह एकबार फिर गांधी जी के संपर्क में आये।
8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। जिस कारण फिर से उन्हें 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। इसके बाद 22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्र सिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके।
चंद्र सिंह गढ़वाली का देहांत (Death of Chandra Singh Garhwali)
1 अक्टूबर 1979 को वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।
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