भारत में वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य
वर्तमान में भारत की राजनैतिक वस्तु संरचना यही है कि वह उदारवाद, मार्कसवाद, साम्यवाद, समाजवाद से कई दूर निकल आया है। कई भारतीय लोग या पार्टी के नेता इसी विचारधारा को भारतीय समाज पर थोप रहे हैं। ये जानते हुए कि भारत ना रूस है, ना इटली, ना चीन है, ना ही फ्रांस. फिर भी उन्हीं विचारधारा के साथ पार्टियों के नेताओं में उसी क्रांति का विचार, कल्पना की दुनिया में आह भरने जैसा है। भारत ने लंबे समय तक उदारवादी विचारधारा को देखा है, कांग्रेस उसी धुरी का परिणाम है, मार्क्सवादी भारत में उतने सफल नहीं रहे फिर भी शर शैया पर लेटे-लेटे वो भी दंभ भरते हैं। राजनैतिक विषय का सच्चा जानकार ये जानता है कि भारत में इन विचारों का अब प्रयोग अप्रसांगिक है। क्योंकि एक जमाने में मार्क्सवाद गाली लगती थी अब लिबरल लगने लगी है।
ऐसा नहीं कि मार्क्सवादी होना या लिबरल होना गलत है। मगर इसका अति प्रयोग भारत के पृदृश्य में ठीक नहीं है। क्योंकि अगर ठीक होता तो मार्क्सवादी विचारधारा जिसका जन्म भारत में 1920 तक पनपा भारत के अनेक राजनैतिक और किसान आंदोलनों नेतृत्व होता। ये स्वतंत्रता से पहले यदा-कदा दिखता था मगर अब नहीं। ये ताज्जुब है कि कांग्रेस जो उदारवाद के रास्ते पर थी अचानक 1938 तक आते आते समाजवाद की बात करने लगती है और उसी का परिणाम होता है कि सुभाष जैसे नेता को कांग्रेस से बाहर कर दिया जाता है क्योंकि वह स्वतंत्रता का एक मात्र जरिया उदारवाद को छोड़कर क्रांति को चुनना चाहता था। इतने पढ़े लिखे मार्कस्वादी और उदारवादी हुए मगर उन्होंने शायद ये विचार नहीं सोचा होगा आज राष्ट्रवाद इन विचारधाराओं पर हावी होगा।
जरा सोचिए बीजेपी जिसका जन्म जनसंघ के बाद हुआ और जो जनसंघ की एकात्म मानववाद सिद्धांत को लेकर चला मगर इतना सफल नहीं हुआ क्योंकि वैचारिक मतभेद था और धार्मिक तौर पर हिन्दू राष्ट्रवाद से इसकी पृष्ठभूमि जुड़ी है जो अब तक साफ दिखती है। मगर जिस तरह से इस पार्टी ने सुभाष को समाया, और अन्य उग्र विचारधारा वाले नेताओं को अपने आप में समाहित किया जैसे पटेल, भक्त सिंह उसने वर्तमान उदारवादी और मार्क्सवादी विचारधारा को दूर किया है। हाल ही में संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा फिर संघ की विचारधारा में एकता के सिद्धांत को परिलक्षित करने की बात कही, जो शायद किसी को गैरजरूरी लगे, मगर ये विचार जरूर कौंधता है कि संघ हिन्दू अतिवाद को कमतर कर रहा है। और उस लक्ष्य को हासिल करना चाहता है जिस विचारधारा से यह पनपा था।
वर्तमान में दिल्ली में जन्मी आम आदमी पार्टी है जो बीजेपी को सही ढंग से पढ़ पा रही है। यही वजह है न वो उदारवाद की ओर ज्यादा मुखर दिखती है न मार्क्सवाद की तरफ इसने सब को समाहित कर बीच का रास्ता अपनाकर राष्ट्रवाद को चुना है। इसी वजह से इसने एक हद तक अपने कार्यों से कम्युनिस्टों को तो आकर्षित किया है मगर राष्ट्रवादियों को भी समाहित कर लिया है। पार्टी की विचारधारा को पढ़ेंगे उसमें साफ लिखा है हमें समाधान वामपंथी, या दक्षिणपंथी जहाँ से भी मिले हम वह विचार उधार लेंगे। इस पार्टी की कोई विशेष विचारधारा नहीं है।
यानि भारतीय राजनीति में एक छोटे से अंतराल में सफल हुई पार्टी की विचारधारा को कोई नाम अब भी नहीं मिला।
मगर इतना साफ है कि इससे उदारवादी कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्टों का पत्ता जरूर साफ होगा। वक्त बदल रहा है देश नई राह पर है। मार्क्सवादी भारत में इसलिए भी सफल नहीं हुआ क्योंकि वह भूल गए कि भारत एक धर्म विशेष से उपजा राष्ट्र नहीं है शायद भविष्य में कभी धर्म की आस्था में कमी होने पर शायद वह फिर पनपे मगर वर्तमान समय से तो कोशों दूर की बात है, उदारवाद भी अब आखिरी साँस ले रहा है। राहुल गाँधी चाहे बीजेपी के समाचार चैनलों को इसका जिम्मेदार ठहराए मगर वह इतिहास को पढ़ा होता तो समझता कि फासीवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद, समाजवाद विचारधारा का जन्म ही इसी के परिलक्षण थे। उदारवाद तो औपनिवेशिक नेताओं की बड़ी-बड़ी बातों से जन्मा था। जो दूसरे देशों पर राज कर रहे थे मगर साथ-साथ उदारवाद की बात करते थे।
मगर समस्या ये हुई कांग्रेस के साथ गाँधी के अति उदार होने के कारण कांग्रेस की विचारधारा जो 1915 से पहले थी वह बदली और ऐसी बदली कि नेहरू के समाजवाद से प्रेरित होने के बाद भी वह चाह कर भी उस विचारधारा को छोड़ नहीं पाए। इंदिरा ने कोशिश की मगर जेपी बीच में आ गए और वापस फिर कांग्रेस को अपने कृत्यों से उसी खोल में वापस जाना पड़ा। वर्तमान कांग्रेस का इसलिए चिंताजनक लगता है क्योंकि वह भूल चुका है कि वह किस विचारधारा का है, था और उपजा, क्योंकि बरसों की सत्ता को उखाड़ फेंकने से किसी के भी विचार डगमगायेंगे। मगर राहुल जो बात करते हैं मुझे नहीं लगता उसे किसी भी कांग्रसी को उसका साथ देना चाहिए। क्योंकि वह खुद नहीं जानता क्या करने जा रहा है परिणाम क्या होंगे।
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