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उत्तराखंड मांगे भू कानून – आखिर क्यों जरूरी है ये नारा? – दीपक बिष्ट

उत्तराखंड जिसकी नींव ही जल, जंगल और जमीन पर रखी गयी। आदाजी के बाद जिस राज्य की मांग को लेकर स्थानीय निवासियों ने अपना सर्वस्व बलिदान किया। यूपी की क्रूरतम और निर्मम कांडों के बाद भी जिन आँखों ने उत्तराखंड का सपना बुना। आखिर आज 20 साल बाद क्या वजह आन पड़ी कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर हैशटैग उत्तराखंड मांगे भू कानून

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ट्रेंड होने लगा? और हिमाचल के दर्ज पर उत्तराखंड भू कानून की मांग तेज हो गयी? क्यों हैशटैग उत्तराखण्ड मांगे भू कानून से लोग उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक और एतिहासिक पृष्ठभूमि बचाने की बात कहने कहने लगे। ये बात समझने के लिए उत्तराखंड के इतिहास पर नजर दौड़ते हैं।



उत्तराखण्ड मांगे भू कानून

उत्तराखंड में जल, जंगल, जमीन की लड़ाई आज की नहीं है। ये लड़ाई बरसों पुरानी है। आज चाहे लोग इस पहाड़ी प्रदेश की जीवन की विषम परिस्थितियों को चुनौती समझते हों, मगर इसी पहाड़ी राज्य के प्राकृतिक दशाओं ने हमे इतिहास में बाहरी आक्रताओं से सुरक्षित रखा था। हूणों, शकों, मुगलों ने भी इतिहास में इसे जीतने की कोशिश की मगर सफल नहीं हुए।

यही नहीं आजादी की लड़ाई में अग्रेजों से संघर्ष भी हमने जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए किया और स्वतंत्रता आंदोलन में एक अहम भूमिका दर्ज की। जब आजादी के बाद यूपी में इस पहाड़ी प्रदेश का विलय हुआ तभी से उत्तराखण्ड की माँग उठने लगी। मगर इसकी लौ तब ज्यादा प्रज्वलित हुई जब तत्कालीन यूपी सरकार ने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई शुरू कर दी।

इस कार्य से ना सिर्फ उत्तरप्रदेश के तत्कालीन सरकार ने इस राज्य में चिपको आंदोलन जैसे एतिहासिक प्राकृतिक आंदोलनों को जन्म दिया बल्कि फिर से जल, जंगल और जमीन के नारे से इस पहाड़ी राज्य की माँग तेज होने लगी। यूपी सरकार ने खटीमा, रामपुर तिराहा, मसूरी और श्रीनगर गढ़वाल के श्रीयंत्र टापू पर गोलीकांड करके इस आंदोलन को निर्मम तरह से कुचलने की कोशिश की मगर इन प्रयासों से पहाड़ी निवासियों के दिलों में और अधिक स्वतंत्र राज्य की माँग बुलंद हो गई।

9 नवंबर 2000 को अंततः उत्तराखण्ड उत्तरप्रदेश से अलग हुआ और उत्तराखण्ड में विकास और रोजगार की हवा बहने लगी। राज्य में नई औद्योगिक नीति लागू हुई और इसी के साथ उत्तराखण्ड भू कानून 2002 लागू हुआ जिसमें 500 वर्गमीटर तक बाहरी राज्य के लोगों को भूमि खरीद की छूट दी गई।

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वर्ष 2007 में पुनः उत्तराखण्ड भू कानून के खरीद के विषय में चर्चा हुई और इसकी सीमा बाहरी राज्यों के लोगों के लिए 500 वर्गमीटर से 250 वर्गमीटर कर दी गयी। जो स्थानिय भाषा में 1 नाली से लगभग थोड़ा ज्यादा है। मगर वर्ष 2018 आते-आते वर्तमान सरकार ने इस तय सीमा को ही समाप्त कर दिया और अब उत्तराखण्ड में अवैध निर्माण और जोत भूमि के खरीद परोख्त चर्म पर पहुंच चुका है। तत्कालीन त्रिवेंद्र सरकार ने कहा था रोजगार आएगा निवेश बढ़ेगा मगर ये रोजगार बस कागजों तक ही सीमित रहा।

उत्तराखण्ड भू कानून मुहिम आखिर क्यों जरूरी है?

असल में त्रिवेंद्र सरकार ने ना सिर्फ बाहरी लोगों के भूमि खरीद की अधिकतम सीमा ही समाप्त नहीं की बल्कि उन्होंने कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी द्वारा हिमाचल प्रदेश के तर्ज पर लाए गए टेनेंसी एण्ड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 को भी समाप्त कर दिया है। इससे नुकसान छोटे किसान और पहाड़ी आँचलों के भू-भाग में रहने वाले लोगों का होना तय है।

समस्या ये है कि राष्ट्रीय वन नीति 1998 के अनुसार देश के 33% भाग पर वनों का होना सुनिश्चित किया गया है जिसके आधार पर पर्वतीय क्षेत्रों में 60 % और मैदान में 25% भाग पर वन रहेंगे। जिसपर ना अवैध कब्जा किया जा सकता है ना बेचा जा सकता है। शेष जमीनों में से 13 % निजी जमीन है और 17% नदी-नालों, गाड़ गदेरों के किनारे पर स्थित सरकारी जमीन है।

उत्तराखण्ड भू कानून समाप्त होने से जो जमीन की खरीद होगी वह बची हुई फसली जमीन और सरकार की जमीन पर होगा। जिससे ना सिर्फ उत्तराखण्ड के परंपरागत फसली जमीन पर निर्माण होगा बल्कि राज्य के पर्यावरण का भी दोहन होगा। बाहरी लोगों के आने से रोजगार सृजन तो हवाहवाई बातें हैं। मगर इससे धीरे-धीरे उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक पहचान, बोली-भाषा और लोक परंपराओं पर असर पड़ेगा। हिमाचल प्रदेश ने इन्ही दूरगामी परिणामो के कारण अपने लैंड रिफार्म बिल में बाहरी लोगों के खरीद को बंद कर दिया था। वहीँ जमीन खरीदने के लिए उसी व्यक्ति की योग्यता सुनिश्तित की जो हिमाचल में 40 वर्ष से रह रहा है।



उत्तराखंड भू कानून का बेरोजगारी से क्या लेना देना?

अक्सर जब भी उत्तराखंड में विनाशकारी कानून लाया गया है उसके पीछे हर सरकार ने अपनी मंशा विकास बताया है। मानो इन कानूनों के आते ही सारी समस्याओं का हल सुनिश्चित हो मगर  ये सारी बातें भी सरकारों के चुनावी भाषणों की तरह बस जुमले बन कर रह जाते हैं।

सेंटर फाॅर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सिंतबर 2020 में आई रिपोर्ट का हवाला दूं तो हिमाचल में इन तमाम लैंड रिफार्म बिल के बाद भी बेरोजगारी दर 12 फीसदी है जबकि उत्तराखण्ड में यह बढ़कर 22.3 फीसदी पहुंच चुकी है।

ये आँकड़े अन्य पहाड़ी राज्य जम्मू कश्मीर के 16.2 फीसदी और त्रिपुरा के 17.4 फीसदी से भी गए गुजरे हैं। बात साफ है सरकार ठेकेदार बनी है जिसमें विकास के बंदर पर चाबी भर कर लोगों को गुमराह किया जा रहा है। सरकार देव संपदा, वन संपदा और लोक संस्कृति के बचाव की बात भूल कर, मदारी का खेल दिखा रही है। समस्या ये है कि इस 2018 में आए भू कानून पर ना सरकार के मंत्रियों ने कुछ कहा ना विपक्ष ने अपनी बात बुलंद की। मगर उत्तराखण्ड के युवाओं को ये ठेकेदारी सरकारी व्यस्थाएँ बेवकूफ बनाने में असफल रही।

युवाओं द्वारा चलाए गए इस हैशटैग उत्तराखंड मांगे भू कानून ना सिर्फ आने वाले भविष्य की तरफ इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा बल्कि आने वाले राजनैतिक भविष्य की तरफ भी यह इशारा है। इस बात पर मुझे भगत सिंह का एक विचार याद आता है कि –

क़ानून की पवित्रता तभी तक बनी रह सकती है जब तक की वो लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति करे। – भगत सिंह

 

डिस्क्लेमर – ये लेखक के निजी विचार हैं।


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Deepak Bisht

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