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गढ़वाल की लोकगाथायें एवं उनकी पृष्ठभूमि

किसी भी राज्य की संस्कृति और लोकसाहित्य, उस देश के प्रत्येक जीव का प्रतिबिम्ब है. लोकसाहित्य में जनता के जीवन का. उसके डास-विलास का व्यक्ति की प्रत्येक दशा और अनुभूति का यथार्त और सरल अंकन होता है। साहित्यकार देशकाल और परिस्थिति को देखकर सहज भाव से साहित्य रचना करता है

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, इसका प्रमाण हमें पौराणिक लोकगाथाओं लोकगीतों एवं अनेक लोककथाओं में पढ़ने एवं देखने को प्राप्त होता है। पौराणिक जितनी भी लोक गाथायें, लोककथायें. या लोकगीत हमें प्राप्त होतें है वह हमारे देश की अमूल्य निधियों है। डा० गोविन्द चातक के अनुसार इन कवियों और रचनाओं ने अपने साहित्य में कृत्रिम, अंलकृत और संक्लिष्ट होने की चेष्टा नही की है वरन इन सरल और ग्रामीण कृतियों का संकलन, अध्ययन, संरक्षण और इनके विविध रूपों का निर्धारण परम आवश्यक है।

गढ़वाली लोक गाथाओं को डा० गोविन्द चातक ने चार भागों में बाटा है ।

1- धार्मिक गाथायें- इनमें अधिकांश धार्मिक गाथाओं का आधार पौराणिक है तथा धार्मिक गाथाओं में पाण्डव गाथा, कृष्ण गाथा. कद्रू वनिता गाथा और सृष्टि उपत्ति गाथा प्रमुख है।

2- प्रणय गाथायें- प्रणय गाथाओं के अर्न्तगत तिल्लोंगा (अमरदेव सजवाण), राजूला मालूशाही आदि की प्रणय गाथायें प्रमुख है।

3- वीर गाथायें- गढ़वाल की वीर गाथाओं में तीलू रौतेली, लोदी रिखौला, कालू भंडारी, रणरौत, माधोसिंह भण्डारी, की गाथायें प्रमुख है।

4- चैती गाथायें- चैती, उपशास्त्रीय गीत विधाओं पर आधारित लोक गीत है। तथा गढ़वाल में इसके अर्न्तगत उप-शास्त्रीय बंदिशे गायी जाती है। बारह मासमें चैत का महीना, गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया जाता है।

लोकगाथायें प्रत्येक व्यक्ति की भावनाओं को प्रस्तुत करने की एक ऐसी मजबूत आकृति है जिसके अस्तित्व निर्माण में अनेक हाथों का योगदान समाहित होता है। समय के बदलते स्वरूप में यह आकृति एक उपयोगी थाती बन जाती है, लोक की अभिव्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति के संस्कार, व्याकरणीय सीमा से मुक्ति, लोकसाहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ, गढ़वाली लोकगाथाओं में देखने को मिलती है। लोकसाहित्य. लोक का उदगार होता है. गाथायें, लोकगीत, कथायें, इस साहित्य के महत्वपूर्ण अंग है।
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गढ़वाली लोकगाथायें, लोकगीत, लोककथायें गढ़वाल मंडल की सांस्कारिक थाती है। यह किसी रचनाकर या जाति समुदाय विशेष की सम्पत्ति नही है वरन देश में अनेकों की विशिष्ट धरोहर है। यह धरोहर ही भारत देश को पूरे विश्व में विश्व गुरु का सम्मान देती है। संगीत आन्नद का विषय है और प्रत्येक व्यक्ति इसका उपयोग करके आन्नद की अनुभूति प्राप्त करता है। लोक साहित्य के अर्न्तगत गढ़वाल की गाथायें, एक व्यक्ति द्वारा नही गयी जाती. और ना ही एक व्यक्ति उसका श्रोता होता है. यह तो सामूहिक रूप से गायी एवं सुनी जाती है। लोकमान्यता के अनुसार यदि कोई गाथाकार किसी गाथा को, अपनी एकल कला का प्रदर्शन करते हुये विशेष विधि से प्रस्तुत करता है तो गाथा से ना केवल रोचकता समाप्त हो जाती है बल्कि वह उपहास का पात्र भी बन जाता है।
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गढ़वाल की अनेक ऐतिहासिक घटनाऐ. गाथाएँ तो प्रत्यक्ष हैं लेकिन कुछ घटनायें अथवा गाथायें अछूती है। इसमें अल्प आयु में मृत्यु को प्राप्त हुये, चन्द्रकुवर बर्तवाल, तथा संस्कृत के विद्वान महाकवि कालीदास की जन्मदात्री यह धरती, इतिहास की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी है। महाकवि कालीदास का जन्म गढ़वाल के कविल्ठा ( रुद्रप्रयाग जनपद) में हुआ था। कालीमाता के जिस मंदिर में महाकवि कालीदास ने विद्या का वरदान प्राप्त नही किया था वह मंदिर आज भी गढ़वाल में ही स्थित है। गढ़वाल के लोक-साहित्य की गाथाओं में अन्य कई और भी प्रमाण सिद्ध करते है कि पांडवों का पर्दापण भी गढ़वाल की धरा पर ही हुआ था । गढ़वाल की लोकगाथाओं ( पांडवों) की गाथा, जो कि कौरव और पांडवों की जन्म से युद्ध तक की निम्न गाथाओं को उल्लेखित करती है।

गढ़वाल का धार्मिक एवं राजनीतिक इतिहास समृद्ध और प्रामाणिक है। गढ़वाल की संस्कृति ऐसी है जिसमें मानव तो क्या देवताओं को भी आकर्षित करने की क्षमता है। शोध करने पर मिले अनेक साक्ष्य, गढ़वाल की भूमि को देवताओं की कर्म और तपोभूमि प्रमाणित करते है।

1- गढ़वाली लोकगीत विविधता (डा० गोविन्द चातक) (तक्षशिला प्रकाशन नयी दिल्ली)

2 – भारतीय लोक संस्कृति का सन्दर्भ ( डा० गोविन्द चातक) ( मध्य हिमालय तक्षशिला प्रकाशन नयी दिल्ली)

3- उत्तराखंड की लोक गाथायें ( शिवानन्द नौटियाल ) (अल्मौडा बुक डिपो, अल्मोड़ा)

4- उत्तराखंड के लोक देवता ( प्रो० डी०डी० शर्मा) ( अकित प्रकाशन हल्द्वानी )

                                                                                                                                                                                          (लेखक – वंदना शर्मा )


 


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