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तीलू रौतेली : गढ़वाल की एक वीरांगना की कहानी | Tilu Rauteli

तीलू रौतेली | Tilu Rauteli

आरंभिक काल से ही उत्तराखंड  वीरों और वीरांगनाओं की भूमी रहा है। जिसमे रानी करणावती (नक्कटी रानी) और तीलू रौतेली का नाम बड़े ही सम्मान और आदर से लिया जाता है। दोनों ही उत्तराखंड की ऐसी वीरांगनाऐं थी जिन्होंने अपने अदम्य साहस और रण कौशल से दुश्मन के पाँव उखाड़ दिए थे।

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उसी साहस, वीरता और नारी शक्ति की परिचायक तीलू रौतेली (Tilu Rauteli) की कहानी इस पोस्ट में बताई जाएगी। जो मात्र 15 साल की उम्र में ही रणभूमि में कूद गयी थी।  तीलू रौतेली (Tilu Rauteli) उत्तराखंड की नारी का वह शक्ति स्वरूप था जिसे “उत्तराखंड की झांसी की रानी” और “गढ़वाल की लक्ष्मीबाई” से आज भी सम्मान से याद किया जाता है।

ओ कांडा का कौथिग उर्यो, ओ तिलू कौथिग बोला

धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे

धेद्वी वीर मेरा रणशूर ह्वेन, भगतु पत्ता को बदला लेक कौथीग खेलला

धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे  ||

(तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गावों में गया जाने वाला थड्या गीत)

तीलू रौतेली का जन्म | Birth of Tilu Rauteli

मात्र 15 साल की उम्र में रणभूमि में कुदने वाली विश्व की एकमात्र वीरांगना “तीलू रौतेली” जिन्हें गढ़वाल की लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है  पोडी गढ़वाल चौंदकोट के गुराड गांव  की रहने वाली थी और इनका वास्तविक नाम तिलोत्तमा देवी था । तीलू रौतेली का जन्म 1663 में हुआ था।  गढ़वाल में प्रति वर्ष 8 अगस्त को इनकी जयंती मनाई जाती है। 

तीलू रौतेली के  पिता का नाम भूपसिंह रावत और माता का नाम मैणावती देवी था ।  इनके दो भाई भी थे जिनका नाम भगतु और पथ्वा था। इनके पिता भुपसिंह बहुत ही वीर और साहसी आदमी थे जिस कारण से गढ़वाल के नरेश मानशाह ने इन्हें गुराड गांव की थोकदारी दी थी वहीं ये गढ़वाल नरेश के सेना में भी थे। तीलू रौतेली  का बचपन का समय बीरौंखाल के कांडा मल्ला गांव में बीता जिस कारण से आज भी कांडा मल्ला में उनके नाम का कोथिग लगता है।



 कभी शादी न करने की खायी कसम | Vow to never marry

महज 15 साल की उम्र में तीलू रौतेली (Tilu Rauteli) की सगाई पट्टी म़ोदाडसयु के इड़ा गांव  के भवानी सिंह नेगी के साथ तय हो गयी थी, इन्हीं दिनों गढ़वाल मे गढ़वाल नरेश और कत्यूरों के बीच लगातार युद्ध छिड़ रहा था। जिसमें कत्यूर राजा गढ़वाल में लगातार हमले कर रहे थे। कत्यूरी राजाओं ने अपनी सेना को और अधिक मजबूत कर गढ़वाल पर हमला बोला दिया। खैरागढ़ में यह लडाई लडी गई जिसका गढ़वाल नरेश मानशाह और उनकी सेना ने डटकर सामना किया परंतु हार के बदले कुछ नहीं मिला। उन्हें युद्ध छोडकर चौंदकोट गढ़ी में शरण लेनी पड़ी।  मानशाह के रणभूमि को छोड़ने के कारण गढ़वाल नरेश के सेनापति भूप सिंह रावत और उनके दोनों बेटे भगतु और पथ्वा को युद्ध संभालना पडा और भीषण हुए इस युद्ध में भूपसिंह रावत मारे गये।  यह युद्ध आगे चलता गया और अलग-अलग क्षेत्रों  में फैलता गया। भूप सिंह के मरने के बाद उनके दोनों बेटों (भगतु और पथ्वा) और तीलू रोतेली के मंगेतर भवानी सिंह ने युद्ध की कमान संभाली लेकिन कांडा युद्ध में ये तीनो भी मारे गये। अपने पिता, भाइयों और मंगेतर के मारे जाने के बाद तीलू बिल्कुल टूट गई और उन्होंने फिर कभी शादी न करने का फैसला ले लिया।

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माँ की फटकार से जब जागा तीलू रौतेली का शौर्य | When awakened by mother’s rebuke

कांडा युद्ध के समाप्त होने के कुछ समय बाद कांडा गांव में कोथिग (मेला) हुआ, जिसमें शुरूआती काल से ही भूपसिंह के परिवार की उपस्थित जरूर होती थी, जिस कारण से तीलू रोतेली भी कोथिग जाने की जिद्द करने लगी । मां को तीलू की यह जिद बिल्कुल पसन्द नहीं आयी और वह गुस्से में आग बबुला होकर तीलू को तीखे शब्दों में कहने लगी –

“अरे मुर्ख तीलू तुझमें जरा भी अक्ल नहीं है क्या ,अभी तेरे दोनों भाइयों , मंगेतर और पिता को गुजरे हुए कुछ समय भी नही हुआ कि तुझे कोथिग जाने की लगी हुयी है । भूल गयी, क्या हुआ था तेरे पिता और भाइयों के साथ । अगर करना ही है तो युद्ध कर अपने भाईयों और पिता के म़ौत का प्रतिशोध ले।”

मां की यह बात तीलू को बहुत बुरी चुभी और तीलू ने फैसला कर दिया कि वह अपने भाईयों और पिता की मृत्यु का बदला लेगी।



 

तीलू रौतेली का रण कौशल  | Tilu Rauteli’s battle skills

तीलू ने अपनी दो सहेलियों  बेल्लू और रक्की ,के साथ मिलकर इन्होने एक नयी सेना तैयार की तथा साथ ही पुरानी बिखरी सेना को भी तैयार कर नयी सेना में शामिल किया और  कत्यूरों के साथ युद्ध का उद्घोष किया। युद्ध के लिए सबसे पहले खैरागढ़ पहुची, खैरागढ़ जो कि वर्तमान में कालागढ़ के समीप है।

तीलू रौतेली (Tilu Rauteli) ने वहां से कत्यूरों को भगाकर उसे कत्यूरों से मुक्त कराया तत्पश्चात उमटा गढ़ी पर हमला किया और उसे भी कत्यूरों से मूक्त कराते हुए सल्ड महादेव पहुची और वहां से भी उनको मार भगाया और इस क्षेत्र को कत्यूरों से हमेशा के लिए मुक्त कराया। उसके बाद वह अपनी सेना के साथ चौखुटिया पहुंची और उसे गढ राज्य की अंतिम सीमा घोषित कर देने के बाद वह अपने सेना दल के साथ देघाट वापस आयी ।

देघाट से लौटकर वह कालिंका खाल पहुंची और  वहां की स्थानिया देवी  माता कालिंका की पूजा अर्चना की। तीलू रौतेली जहां भी युद्ध पर जाती सबसे पहले वहां की स्थानिया देवी देवताओं की पूजा करती थी। कालिंका खाल में उनका शत्रुओं से  घमासान युद्ध हूआ,और फिर सराईंखेत में कत्यूरों को परास्त करके अपने पिता, जो कि युद्ध में सराईंखेत में मारे गये थे उनके बलिदान का बदला लिया।

 इस युद्ध में उनका घोड़ा बुरी तरह कत्यूरो के वार से घायल हो गया था और वह इसी जगह पे मर गया। इस तरह पूरे सात वर्ष तक लगातार युद्ध करने के बाद जीत हासिल करके जब तीलू अपने घर को लौट रही थी तो रास्ते में पानी देख नदी के समीप विश्राम करने की इच्छा से वह अपनी बची हुयी कुछ सेना के साथ पूर्वी नयार नदी में रात को विश्राम के लिए रुक गयी।

सुबह जब सब सोये हुए थे तो तीलू उठ कर के नदी में पानी पीने लगी तो पीछे से घायल एक कत्यूरी सेना के सैनिक रामू रजवार ने उन पर हमला बोल दिया जिससे तीलू बुरी तरह घायल हो गयी चूँकि तीलू उस समय निहत्ती थी तो कुछ कर नहीं पायी और बुरी तरह से घायल होने के कारण यह वीरबाला वीरगति को प्राप्त हो गयी।

याद में प्रति वर्ष लगता है मेला | Fair is held every year in remembrance

तीलू रौतेली (Tilu Rauteli) की याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली (Tilu Rauteli) की प्रतिमा का पूजन किया जाता है।  तो ये थी कहानी उत्तराखंड की एक ऐसी वीरांगना की जिसने अपनी अंतिम साँस तक शत्रुओं से  लोहा लिया।


by Nikku Negi

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