अगर आप बद्रीनाथ यात्रा (Badrinath Yatra) और बद्रीनाथ (Badrinath) से जुड़े किस्से ,कहानी, इतिहास को जानना चाहते हैं तो इस पोस्ट को अंत तक पढ़िए यहाँ आपको बद्रीनाथ से जुडी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त होगी, जिसे कई किताबों और पर्सनल एक्सपीरियंस से इक्क्ठा और संजोया गया है। बद्रीनाथ से जुडी ये पोस्ट प्रदीप चौधरी द्वारा लिखी गयी है। इस पोस्ट में बद्रीनाथ से जुड़े बहुत ही रोचक जानकारियां हैं अतः अंत तक पढ़े।
Table of Contents
बद्रीनाथ | Badrinath
श्री बद्रीनाथ मन्दिर (Badrinath) उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनन्दा के दक्षिण तट पर स्थित है । इसके अन्दर बद्रीनारायण जो की सन्निधि में पहुंचकर मन की सारी मलिनता दूर हो जाती है । मन अत्यन्त आनन्द को प्राप्त कर भक्ति में लीन हो जाता है । बद्रीनाथ जी की मूर्ति विविध आभूषणों से विभूषित है ।
मन्दिर में दर्शन – मन्दिर के अन्दर श्री बद्रीनाथ जी (Badrinath) की दिव्य मंजुल मूर्ति श्यामल स्वरूप में वहुमूल्य वस्त्राभूषण एवं विचित्र मुकुट धारण किए शोभायमान हो रही है । मूर्ति काले पापाण की है , भगवान् पद्मासन ध्यान में हैं । इनके ललाट में होरा लगा हुआ है । अगल – बगल नर – नारायण उद्धवकुबेर व नारद जी की मूर्तियाँ हैं । परिक्रमा में हनुमान , गणेश , लक्ष्मी , धारा , कर्ण आदि की मूर्तियाँ हैं । लक्ष्मी मन्दिर के बगल में भोगमण्डी है जहाँ भगवान का भोग पकता है । भोग लगाने के पश्चात् प्रसाद बांटा जाता है । मन्दिर में सूखा प्रसाद तथा महाभोग भी निःशुल्क मिलता है किन्तु कोई विशेष लेना चाहे तो मन्दिर की ओर से पैकेट में बन्द किया गया प्रसाद , भगवान का चरणामृत , अंगवस्त्र , चन्दन आदि किंचित भेट देने पर तत्काल दिया जाता है ।
श्री बद्रीनाथ मन्दिर (Badrinath Temple) के पीछे की तरफ धर्मशिला नामक एक शिला है , बाई ओर एक कुण्ड है । उत्तर की ओर एक कोठरी में पुरी के रक्षक घन्टाकरण भी हैं । पूर्व के मैदान में गरुड़ जी की पाषाण मूर्ति विराजमान है । दक्षिण में ‘ गुम्बददार लक्ष्मी जी का मन्दिर है ।
श्री बद्रीनाथ जी की दैनिक पूजायें – मन्दिर भक्तों के दर्शनार्थ प्रात : 6 बजे खुलता है । प्रात : 6 बजे से 6 बजे तक महाभिषेक । अभिषेक सम्पन्न श्री रावल जो के द्वारा होता है । मन्दिर में पूजा केवल केरलीय नपूतरी ब्राह्मण ही कर सकते हैं । उस मुख्य पुजारी को रावल जी कहा जाता । सवा नौ बजे बालभोग ( खीर ) लगता हैं । साढ़े नौ बजे श्रीमद्भागवत् पाठ , गीतापाठ , तथा दोपहर को बारह बजे के लगभग महाभोग लगाया जाता है । महाभोग लगाकर मध्याहन के लिए मन्दिर बन्द हो जाता है । शाम को साढ़े तीन बजे मन्दिर एकांत सेवा के लिए खुलता है जो साढ़े चार बजे तक सर्वसाधारण के लिए पुनः खुल जाता है । 6 बजे के बाद सायंकाल की विशेष पूजायें आरम्भ होती हैं । रात्रि आठ बजे भोग लगकर शयन आरती होती है एवं मन्दिर बन्द हो जाता है ।
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बद्रीनाथ में व्यवस्था | Arrangements in Badrinath
श्री बद्रीनाथ पुरी भगवती अलकनन्दा के दाहिने किनारे पर श्री बद्रीनाथ पुरी बसी है । जहाँ तक आपको बस ले जाएगी उसके सामने ही पुल पार करके श्री बद्री विशाल का भव्य मन्दिर है । पुरी में एक अच्छा बाजार , कितने ही निवास योग्य मकान , धर्मशालाएं और डाक बंगला इत्यादि हैं । रहने के लिए विस्तर कम्बल आदि बाजार में किराए पर मिल जाते हैं । खाने पीने का भी प्रबन्ध पूरा है । बाजार में आवश्यकता की सभी चीजें उपलब्ध हैं । पं ० ने बैंक व स्टेट बैंक की शाखायें भी सार्वजनिक निर्माण विभाग का निरीक्षण गृह , डी . जी . बी . आर . निरीक्षण गृह , मन्दिर समिति के यात्री गृह , बिरला धर्म शाला , बाबा काली कमली वालों की धर्मशाला , आन्ध्र प्रदेश अष्टोत्तरी क्षेत्र , पंजाब सिंध क्षेत्र , जय जला राम धर्मशाला , भजन आश्रम तथा तीर्थ पुरोहितों के कितने ही निवास स्थान हैं । सरकार की ओर से भी यात्री गृहों का निर्माण चल रहा है । परमार्थ निकेतन ट्रस्ट की ओर से परमार्थ धाम बन रहा है । गीता मन्दिर संस्था की ओर से कितने ही निवास योग्य स्थान यहाँ बनाए जा रहे हैं । कुल मिला कर पुरी में रहने तथा खाने पीने की समुचित सुविधायें उपलब्ध हैं ।
बद्रीनाथ के समीपवर्ती तीर्थ | Pilgrimage Near Badrinath
1. तप्तकुड – मन्दिर के नीचे अलकनन्दा के तट पर ये गर्म जल का कुण्ड है । निकट ही प्रहलाद धारा है उसके पास ही कूर्म धारा है जो शीतल है । अलकनन्दा के किनारे शिलाओं के बीच में नारदकुण्ड है । आस – पास में ब्रह्मकुण्ड गौरीकुण्ड , सूर्य कुण्ड आदि हैं ।
2. पंचशिला – नारद शिला ; वाराह शिला , नृसिंह शिला , गरुड़ शिला और मार्कण्डेय शिला ये तप्त कुण्ड के ऊपर हैं । जो यात्री केदारनाथ नहीं जा पाते वह प्रथम यहाँ दर्शन करके फिर बद्रीनाथ के दर्णन करते हैं ।
3. ब्रह्मकपाल – यहीं पर यात्री पितरों की तृप्ति हेतु पिण्ड दान करते हैं । पिण्डदान विधि यहीं पर खत्म हो जाती है । यह तीर्थ शिला के रूप में मन्दिर से थोड़ी दूर पर है । यहां भगवान के महाप्रसाद ( पकाए हुए चावल ) से पितरों के पिण्ड और तर्पण दिए जाते हैं , जिससे पितरों को अक्षय मुक्ति मिलती है । जब ब्रह्माजी अपनी पुत्री संध्या पर आसक्त हुए तब शिवजी ने एक अन्य रूप धर कर क्रोध से उनका एक सिर काट डाला । तभी से ब्रह्मा चतुर्मुखी हैं । इससे पहले पंचमुखी थे । लेकिन ब्रह्म हत्या के पाप से वह सिर शिवजी के हाथ से चिपक गया । उस सिर को छुड़ाने वह सब तीर्थों में गए । निदान बद्रिकाश्रम में पहुँच कर वह कपाल शिवजी के हाथ से छूटकर अलकनन्दा के समीप गिर पड़ा । अतः ये स्थान ब्रह्मकपाल के नाम से प्रसिद्ध है ।
4. वसुधारा – यह स्थान पुरी से 7 कि . मी . है । यहाँ जाने के लिए जोशीमठ से ही अधिकारियों का आज्ञा पत्र लेना पड़ता है । यहाँ 400 फीट ऊँचे से जल गिरता है । लोगों का विश्वास है कि पापी मनुष्यों पर जल को बूंदें नहीं गिरती ।
5. माता मूति — पुरी से 3 कि . मी . पर माना गांव के पास हो ये मन्दिर है । श्री बद्रीनाथ जी को माता श्री मूर्ति देवी हैं । वामन द्वादशी को यहाँ मेला लगता है ।
6. शेष नेत्र – पुरी में नर पर्वत पर शेष नेत्र है । एक शिला में शेष जी की आँखें स्पष्ट दिखाई देती हैं ।
7. चरण पादुका – पश्चिम की ओर एक ऊंचे टीले पर चरण पादुका के चिन्ह हैं । यहाँ पुष्पों से लदा पर्वत बहुत ही सुन्दर लगता है ।
8. सतोपन्थ – यहाँ बर्फ के जल का स्वच्छ सरोवर है । यह 1440 फीट की ऊंचाई पर है , जून से पहले यहां नहीं जा सकते ।
9. अलकापुरी – श्री बद्रीनाथ पुरी से सतोपन्थ जाने के मार्ग के पास लक्ष्मीवन के समीप अलकापुरी है जहाँ सतोपंथ व भागीरथ खड्ग ग्लेशियर मिलते हैं । यहीं अलकनन्दा का उद्गम स्थान है । समस्त पुराणों में विष्णुपदी गंगा , अलकनंदा को ही बताया है । आदि गंगा यही है ।
10. मानागांव ( मणिभद्रपुर ) -श्री बद्रीनाथ पुरी से 4 कि . मी . की दूरी पर है । अलकानन्दा के बायें तट पर बसा हुआ है । इसके पास ही अलकनन्दा व सरस्वती का संगम है , जिसे केशव प्रयाग कहते हैं । इसी गाँव में गणेश गुफा व व्यास गुफा है , आगे जाकर भीमशिला है । यहीं सरस्वती नदी के तट पर व्यास जी ने श्रीमद्भागवत की रचना की थी । कुछ लोग अष्टादश पुराणों की रचना यहीं पर की बतलाते हैं । मानागाँव से थोड़ी दूर पर राजा मुयकुन्द नाम की गुफा है ।
बद्रीनाथ मन्दिर (Badrinath) का प्रबन्ध – मन्दिर में श्री बद्रीनाथ जी (Badrinath) की पूजा आदि स्वामी शंकराचार्य जी की व्यवस्था के अनुसार दक्षिण भारत के नम्पूतरी जाति के ब्राह्मण करते हैं । जिन्हें ‘ रावल ‘ कहते हैं । सन् 1866 ईस्वी में मन्दिर की पूजा का प्रबन्ध सरकार ने ‘ रावल ‘ को सौंपा लेकिन मर्यादा के अनुसार ” रावल ‘ ब्रह्मचारी न रह सके और निरंकुश होने के कारण वे मन्दिर के धन व धर्म की समुचित रक्षा न कर सके । अत : हिन्दू जनता की माँग पर सन् 1936 में ‘ श्री बद्रीनाथ मन्दिर कानून ‘ बना जिसके अनुसार ‘ रावल ‘ को सिर्फ पुजारी का दायित्व दिया गया । मन्दिर के प्रबन्धक के लिए 12 व्यक्तियों की एक समिति बनाई गई । जिसे ‘ बद्रीनाथ – केदारनाथ प्रबन्ध समिति ‘ (Badrinath Kedarnath Mandir Smiti ) का नाम दिया । उत्तराखंड राज्य स्थापना से पहले मन्दिर समिति के सदस्यों की चुनाव व्यवस्था अध्यक्ष – उत्तर प्रदेश राज्य की ओर मनोनीत , सदस्यगण उत्तर प्रदेश विधान परिषद , उत्तर प्रदेश विधान सभा , टिहरी गढ़वाल महाराजा द्वारा मनोनीत जिला परिषद , गढ़वाल तथा उत्तर प्रदेशादारा मनोनीत प्रतिनिधि इत्यादि। लेकिन फरवरी 2020 में श्री बदरीनाथ एवं श्री केदारनाथ मंदिर अधिनियम, 1939 की धारा-11(2-क) के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए वर्तमान में गठित श्री बदरीनाथ श्री केदारनाथ मन्दिर समिति को भंग किया गया है। इसकी जगह अब देवस्थानम बोर्ड मंदिरो की व्यवस्था करेगा।
बद्रीनाथ की पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि | Mythological and historical background of Badrinath
बद्रीनारायण नर और नारायण पर्वतों के बीच अलक नन्दा तट पर विराजित हैं । कहा जाता है कि नर और नारायण ने यहीं तपस्या की थी तब से उन्हीं के नाम पर इन पर्वतों का नाम भी पड़ गया । यह किंवदन्ति प्रसिद्ध है कि नर और नारायण नाम के दो अपियों ने जो क्रमश : धर्म और कला के पुत्र थे और भगवान विष्णु के चतुर्थ अवतार थे । बदरिकाश्रम में आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया । उनकी तपस्या के कारण इन्द्र भयभीत हुए और इन ऋपियों का मन विचलित करने को अपसरायें भेजीं । इससे नारायण बहुत क्रुद्ध हो गये और उन्हें 55 श्राप देने लगे पर नर ने उन्हें शान्त किया । फिर नारायण ने उर्वशी की उत्पत्ति की जो उन अपसराओं से अतीव सुन्दर थी , उर्वशी को उन्होंने इन्द्र की सेवा में भेंट कर दिया । अपसराओं ने जब नारायण से विवाह का प्रस्ताव किया तो उन्होंने अगले जन्म ( श्री कृष्ण अवतार ) में विवाह करने का वचन दिया । यही नर व नारायण अपने पुनर्जन्म में अर्जुन व कृष्ण हुए ।
देवी भागवत में भी एक कथा है कि एक बार प्रसाद ने बदरिकाश्रम में नर – नारायण आश्रम के निकट कुछ सैनिक देखे । वे उन्हें धूर्त समझकर उनसे युद्ध करने लगे । ये युद्ध ऐसा हुआ कि अन्त होने का नाम ही न लेता था । तब भगवान विष्णु ने हस्तक्षेप करके शान्ति स्थापित की थी ।
महाभारत में कहा गया है कि एक बार नारद जी बदरी में नर – नारायण के पास गये । उस समय नारायण अपनी दैनिक पूजा में व्यस्त थे । नारद ने पूछा कि वह कौन है जिसकी पूजा आप स्वयं करते हैं ? नारायण ने उत्तर दिया कि हम आत्मा की पूजा करते । नारद ने यह पूजा देखनी चाही तो नारायण ने कहा कि वे श्वेतद्वीप जायें वहाँ वह उसका मौलिक रूप देखेंगे । नारद श्वेतद्वीप गए और वहां उन्होंने नारायण को निर्गण और सगूण दोनों रूपों में देखा । नारद ने श्वेतद्वीप में पचरात्र सिद्धान्त स्वयं नारायण जी से सीखे और बदरी में लोट कर पुनः इसी सिद्धान्त से नारायण की पूजा की ।
इस खण्ड में सुशोभित गंगा अलकनन्दा की महिमा संसार में अद्वितीय है । पौराणिकों ने इस खण्ड की भूरि – भूरि प्रशंसा की है
गंगाद्वारोत्तर विप्र ! स्वर्गभूमिः स्मृता बुधः
अन्यत्र पृथ्वी प्रोक्ता गंगाद्वारोत्तरं विना
गंगाद्वार के उत्तर के क्षेत्रों को पुराणों ने स्वर्गभूमि कहा है और इन क्षेत्रों को छोड़कर दूसरे भूखण्डों को पृथ्वी की संज्ञा दी है ।
‘ बदरी ‘ शब्द का अर्थ बेर बताते हैं । कहते हैं कि यहाँ पहले ‘ बेर के वृक्ष बहुतायत में थे । नारद मुनि ने भी यहाँ तप किया था इसलिए इस क्षेत्र को शारदा क्षेत्र भी कहते हैं । महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने यहीं से स्वर्गारोहण किया था । भगवान श्री कृष्ण जी ने अपने प्रिय सखा उद्धव को तप के लिए इसी स्थान पर भेजा था । इस प्रसिद्ध बात का निषेध करने के लिए भी हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है कि ईसा से पूर्व दूसरी शताब्दि में बादरायण ने यहीं रहकर बादरायण सूत्र की रचना की जो ब्रह्म – सूत्र के नाम से विख्यात है । बादरायण का नाम ही उद्घोषणा करता है कि वे बदरी के निवासी थे । पौराणिक लोग कई पुराण – वचनों का प्रमाण देते हुए ये भी कहते हैं कि केवल व्यास देव ही नहीं अपितु सनकादि , भृगु , नारद और शुक्ल ” भी यहीं विहार किया करते थे
अलकनन्दा के किनारे गौड़पाद शिला है । आठवीं शताब्दि में सुप्रसिद्ध गौड़पाद ने अपनी माण्डूक्य कारिका इसी शिला पर वैठकर लिखी बताते हैं । इन्हीं गौड़पाद के प्रमुख शिष्य शंकराचार्य का वदरिकाश्रम के साथ सम्बन्ध था । कहते हैं कि श्री बद्रीनाथ जी की वर्तमान मूर्ति पौराणिक काल में जिसको नारद मुनि पूजते थे वही प्राचीन मूर्ति है । बौद्धकाल में उस मूर्ति को वौद्ध लोगों ने अलकनन्दा में डाल दिया । सातवीं या आठवीं शताब्दि में ईश्वरीय प्रेरणावश आदिगुरु शंकराचार्य ने दक्षिण भारत से यहां आकर उस प्राचीन मूर्ति को नारद कुण्ड से ‘ निकालकर तप्त कुण्ड के पास गरुड़कोटि गुफा में स्थापित किया । तभी से श्री बद्रीनाथ जी की पूजा नम्बूद्री ब्राह्मण करते हैं । कोई इस मूर्ति को बौद्ध भगवान की और जैन लोग इसे पारसनाथ अथवा ऋषभदेव की बतलाते हैं । भगवान का ये वर्तमान मंदिर गढ़वाल नरेश ने पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित किया था । श्री बद्रीनाथ जी के मन्दिर पर जो सोने का कलश या छतरी है वह इन्दौर की प्रसिद्ध रानी अहिल्याबाई का चढ़ाया हुआ है । श्री बद्रीनाथ भगवान की मूर्ति को स्पर्श नहीं किया जाता । बद्रीनाथ जी की दैनिक पूजा नारद पंचरात्र या वैखानस पद्धति से की जाती है । ये भी कहा जाता है कि बद्रीनाथ व केदारनाथ के मन्दिर की पूजा प्राचीन काल में एक ही पुजारी किया करता था यद्यपि इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
महामहिम श्री बद्रीनाथ जी | Grace of badrinath
बदरिकाश्रम में महान् ऋषि – गण रहा करते थे यही विचार कर मन आनन्द से रोमांचित हो उठता है । इसके अतिरिक्त प्राकृति सुषमा की दृष्टि से भी बद्रीनाथ संसार के दर्शनीय स्थानों में से एक है । हिमशृगों की कांति इस पुण्य धाम की सुन्दरता को और भी बढ़ा रही है । यहां की प्रकृति की शोभा का वर्णन ‘ दिव्य – दिव्य ‘ इन शब्दों से दिया जा सकता है । दिव्य प्रकृति ही ब्रह्म है । प्रकृति ब्रह्म से कोई भिन्न वस्तु नहीं है । प्रकृति की शोभा ही ब्रह्म की शोभा है । शुद्ध एवं अकृत्रिम में ही ब्रह्म का प्रकाश अधिक प्रकट होता है । शुद्ध हो या अशुद्ध जो व्यक्ति सम्पूर्ण प्रकृति को ब्रह्म रूप में जानता है , वही सच्चा दार्शनिक है । वह सदा ब्रा के दर्शन करता है । फिर उसे योगियों की समाधि से कोई लाभ नहीं होता , वह स्वयं समाधि स्वरूप बन जाता है । स्वरूप बन जाता है । इस प्रकार ये क्षेत्र धद्धालु लोगों का मन हठात् आकृष्ट कर लेता है । यहाँ ईश्वरीय अखण्ड विभूति के नृत्य को देखकर किसका मन आनन्द विमुग्ध न होगा । सच तो ये है कि यहाँ ईश्वर ही हिम संहिता के रूप में शोभायमान है ।
हे बदरी भूमि ! तू प्राकृतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न है । इन दोनों शक्तियों का अनावरत प्रसार करते हुए तू कोटि – कोटि जीवों पर अनुग्रह करती है । तेरी सदा जय हो ।
पौराणिक आख्यान | Mythological legend Of Badrinath
अरुन्धती जी ने कहा कि हे स्वामिन ! सर्व प्राणियों के हित की इच्छा के लिए और मेरी प्रीति के श्री बद्रीनारायण महात्म्य को कृपा पूर्वक कहिए , जिस महात्म्य को शिव जी ने पार्वती जी से कहा था । हे तपोनिधे ! वह बद्री क्षेत्र कितना बड़ा है ? और वहाँ जाने से क्या – क्या फल प्राप्त होता है ? इन सबको विस्तार पूर्वक मेरे से कहिए ।
सूत जी बोले कि हे शौनक – इस प्रकार अरुन्धती के वचन को सुनकर क्षणमात्र भगवान का ध्यान कर वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे प्रिये ! सर्व साधारण रहित व्यक्ति भी श्री बद्री नारायण के दर्शन करके अनायास मुक्ति पा जाता है जिसने सैकड़ों जन्म भगवान की आराधना की हो , उसी को थी बद्री नारायण भगवान के दर्शन होते हैं और जो कोई शुद्ध चित्त से भक्ति पूर्वक किरीट से लेकर चरण पर्यन्त श्री बद्रीनारायण भगवान का दर्शन करता है । उसे प्रभु के परम धाम में स्थान मिलता है।
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