हिलजात्रा | Hilljatra
उत्तराखंड अपनी खुबसूरती के साथ लोक परंपराओं के लिये भी प्रसिद्व है। आध्यात्म ओर आस्था की तसदीक देता देवभूमि उत्तराखंड अपने लोक नृत्य, लोक जात्रा, लोक त्यौहारों के लिये पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। इन्हीें लोक जात्रां या यूं कहें लोक नृत्य में से एक है हिलजात्रा। यह एक तरीके की लोकनाट्य परंपरा है। इसमें मुखौटा पहनकर नृत्य नाटक किया जाता है।
हिलजात्रा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की सोरघाटी का प्रसिद्ध उत्सव है। सौर घाटी में लगभग एक सप्ताह तक चलने वाला यह लोकोत्सव कुमौड़ के साथ ही भुरमुनी, मेल्टा, बजेटी, खतीगांव, सिलचमू, अगन्या, उड़ई, लोहाकोट, चमाली, जजुराली, गनगड़ा, बास्ते, देवलथल, सिरौली, कनालीछीना, सिनखोला, भैंस्यूड़ी आदि गांवों में भी मनाया जाता है।
हिलजात्रा का इतिहास तकरीबन 500 साल पुराना है। मुखौटा नृत्य पर आधारित यह लोकोत्सव सोरघाटी की पहचान बनता जा रहा है। देशभर से लोग इस उत्सव को देखने के लिये पहुचते हैं। इस लोकउत्सव का आयोजन कई मंचों पर भी किया जा चुका है। लेकिन हिलजात्रा को खास पहचान मिली 36 वर्ष पूर्व दूरदर्शन में प्रसारित हुये कार्यक्रम से।
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यह वह दौर था जब मनोरंजन के नाम पर दूरदर्शन ही एकमात्र चैनल था। दिल्ली दूरदर्शन से प्रसारण के बाद इस लोक उत्सव को देशभर में प्रसिद्धि मिली। लोक परंपरा की संवाहक हिलजात्रा की खास बात यह है कि इस लोकनाट्य परंपरा को बड़े स्तर के सांस्कृतिक आयोजनों में पांच बार प्रथम पुरूस्कार मिल चुका है।
हिलजात्रा आयोजित करने के पीछे की कहानी
उत्तराखण्ड़ के पिथौरागढ़ जनपद स्थित सौर घाटी में 500 सालों से हिलजात्रा का आयोजन किया जा रहा है। कहा जाता है कि यहाॅ कुमोड़ गांव से चार भाई नेपाल में आयोजित होने वाली इंद्रजात में शामिल होने गये थे। इन भाईयों की बहादुरी से प्रसन्न होकर नेपाल नरेश ने इन्हें यश और समृद्वि के प्रतीक ये मुखौटे उपहार स्वरूप दिये। जिन्हें ये भाई वापस पिथौरागढ़ अपने गांव लेकर आ गये। और यहाँ इन मुखोटों के प्रयोग से पहली बार हिलजात्रा नाम से नृत्य नाटिका का आयोजन किया।
यही कारण है कि हिलजात्रा की कुछ-कुछ झलक इंद्रजात से मिलती जुलती है। तब से वर्तमान समय तक सोरघाटी के लोग हिलजात्रा का आयोजन करते आ रहे हैं। वक्त के साथ इस नृत्य नाटिका में प्रयोग की जाने वाली सामग्री, साज सज्जा के सामानों में थोड़ा बहुत बदलाव जरूर आया है। लेकिन इसका कलेवर आज भी वहीं पौराणिकता का एहसास दिलाता है जो वर्षो पहले से चली आ रही है।
मुख्य आकर्षण
हिलजात्रा पिथौरागढ़ की संस्कृति और विरासत को अपने आप में समेटे हुए है, यही कारण है कि हिलजात्रा का महत्व और अधिक बढ जाता है। हिलजात्रा में आकर्षण का केन्द्र रहने वाले ये मुखौटे सोरघाटी की वीरता के इतिहास को दर्शाते हैं। हिलजात्रा के प्रमुख पात्र लखिया के तेवरों, उसके हाव-भाव को देखते हुए इसे लखिया भूत नाम से संबोधित किया जाता है, किंतु स्थानीय लोग इसे भगवान शिव का सबसे प्रिय और बलवान गण वीरभद्र मानते हैं।
नेपाल से भारत आये ये मुखौटे महर भाइयों की वीरता के साथ ही सोरघाटी की सुख समृद्धि का प्रतीक भी माने जाते है। इनमें नेपाली बैल, लाखिया भूत और हिरन के मुखौटे समेत अन्य बड़े व छोटे मुखौटे भी शामिल हैं। इस पर्व में पात्रों का रोमांचित करने वाला अभिनय दर्शकों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर देता है।
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हिलजात्रा में अभिनय करने वाले प्रमुख पात्र इस प्रकार हैं-
- घोड़िया
- चैकीदार
- झाड़ूवाला,
- जालिया (मछेरा)
- दही वाला
- ग्वाला,
- ळलवाहा
- छोटे बैलों की जोड़ी
- नैपाली बैलों की जोड़ी,
- बड़े बैलों की जोड़ी,
- पुतारियां (धान के पौध रौपने वाली स्त्रियां
- हिरन चित्तल
- लखिया भूत
- नाई,
- भालू
- ग्रामीण जीवन और उससे जुड़े पात्रों का जीवंत चित्रण
ऐसे होता है हिलजात्रा का मंचन –
सबसे पहले मैदान में आते हैं- झाड़ू लगाते हुये स्त्री-पुरुष, फिर हुक्का चिलम पीते मछुवारे, ओर इसके बाद एंट्री होती है शानदार बैलों की जोड़ी और हलिया की। दरअसल हलिया से उस किसान को संबोधित किया जाता है जो खेतों में हल जोत रहा होता है। इसके बाद आते हैं गल्या बल्द यानी की अड़ियल बैल और फिर शुरू होता है बैल और किसान के रूठने मनाने का स्वांग। किसान अपने अड़ियल बैल को मनाते हुए उससे चलने को कहता है पर बैल जिद्दी है इतनी आसानी से कहाॅ मानना होता है बैल को।
हल जोतने के लिये जैसे ही उसे जुए में जोता जाता है तो वह खेत में लेट जाता है और किसान को परेशान करता है. यह दृश्य देख दर्शक ठहाके लगाने लगते हैं। लेकिन इतने में ही दूसरी ओर हुड़के की थाप और चांचरी के बोलों के बीच महिलाओं की धान रोपाई और गुड़ाई का स्वांग भी चलता रहता है। यह स्वांग इतने रोचक और जीवंत होते हैं कि दर्शक तुरंत ही इनसे जुड जाते हैं। बीच-बीच में ग्रामीण जीवन में पाए जाने वाले अन्य अहम पात्र भी इसका हिस्सा बनते जाते हैं जैसे शिकारी, साधु, घास काटती घस्यारी आदि।
दर्शक जब इस पूरे स्वांग ओर कहानी में खो से जाते हैं तभी अचानक ढोल-दमाऊ की तेज आवाज आने लगती है जो शरीर में एक अलग सी सिहरन पैदा कर देता है।
ढोल-दमाऊ की यह रिदम सूचना है हिलजात्रा के मुख्य पात्र लखिया भूत के आगमन की। ढोल की आवाज को महसूस करते हुए दर्शक उस ओर नजरें दौडाते हैं जहाॅ से सर पर लकड़ी के विशाल मुखौटे, लाल-काली पोशाक, हाथों में दो काली चवंर, गले में रुद्राक्ष की माला और दो गणों द्वारा कमर में मोटी लोहे की जंजीर को पकड़े हुए
लखियाभूत ढोल की ध्वनि के साथ लयबद्ध तरीके से नाचते-कूदते हुए मैदान में प्रवेश करता है। सभी लोग अक्षत और फूल चढ़ाकर लखिया भूत की पूजा अर्चना कर अच्छी फसल और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. घंटों चलने वाले हिलजात्रा पर्व का समापन उस लखिया भूत के वापस जाने के साथ होता है, जिसे भगवान शिव का गण माना जाता है।
देवभूमि उत्तराखण्ड़ में पौराणिक काल से ही इस तरह के उत्सवों का आयोजन किया जाता रहा है। इन उत्सवों को आयोजिलत करने का उद्वेश्य भगवान का धन्यवाद करना व पहाड़ो पर प्रकृति का आर्शिवाद बना रहे रहता है। इस तरह के उत्सवों से जहाॅ लोग एक दूसरे से मिल पाते हैं वहीं नई पीढी भी अपनी जड़ो को पहचान पाती है। अभी सभ्यता की ओर आर्कषित होती है।
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