जून का महीना, मानसून के आने का वक्त। भारत के किसानों को इसी मानसून का इन्तजार रहता है। उत्तर से उठता पश्चिमी विक्षोभ, पूर्व और पश्चिम से आती अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से नम हवाएं, उत्तर भारत के गर्म शुष्क जमीन को भिगो देती हैं। बारिश के बरसते ही लगता है कि गर्मी से जलते शरीर का शुकून फिर लौट आया।
मगर उत्तराखंड के रहवासियों से पूछो तो जून बस एक भयावह याद बनकर हर साल कुरेदता है। ऐसा नहीं है इस पहाड़ी प्रदेश ने कभी आपदाओं को नहीं देखा, देखा है और हर साल उत्तराखंड का कोई न कोई क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं से जूझता ही है। मगर साल 2013 के 16 / 17 जून को जो हुआ उससे भयानक शायद कभी नहीं देखा।
साल 2013 उत्तराखंड में हर साल की तरह हिन्दूओं के चारों धामों केदारनाथ /बदरीनाथ /गंगोत्री और यमनोत्री में कपाट खुलते ही यात्रा उफान पर थी। इन चारों धामों की यात्रा से उत्तराखंड को 12 हज़ार करोड़ से ज्यादा का राजस्व मिलता है। वहीं छोटे व्यापारी और घोडा, खचर पालकी चलाने वालों का भी चारधाम यात्रा आजीविका का अहम जरिया है। 13 जून 2013, मानसून के उत्तराखंड में दस्तक देने से पहले ही रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, के पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार बारिश होने का सिलसिला जारी था। हर साल की ही तरह आम सी लगने वाली इस बारिश में भी यात्रा अपने चरम पर थी।
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रुद्रप्रयाग के केदारनाथ में भी भगवान भोलेनाथ के जयकारों के साथ कई हजार लोग शिव के दर्शनों के लिए मंदिर पहुंच रहे थे। यात्रा का अंदाजा इसी बात से लगाया था कि मंदिर के आसपास के होटल और लॉज खचाखच भरे हुए थे। शासन – प्रसाशन दोनों ने ही इस बढ़ती हुई संख्या को सरकारी खजाने के बढ़ते राजस्व के तौर पर देखा। विशेषज्ञों ने भी उत्तराखंड में उमड़ते घुमड़ते बादलों पर चिंता व्यक्त की। मगर किसी ने उस और ध्यान नहीं दिया।
13 से 16 तक मौसम ऐसा ही बना रहा। नदी, गदेरे उफान पर थे, राष्ट्रिय राजमार्गों पर भूस्खलन होने लगा और फिर 17 जून की सुबह को खबर आती है कि केदारनाथ में आपदा आ गयी जिससे मंदिर के आसपास का सब कुछ तबाह हो गया। ये सुनकर डर लगने लगा और वहां से आती तस्वीरों से मन सिहर उठा। कई चैनल बदल-बदलकर हम सब वही देख रहे थे। -पापा भी लगातार लोगों से वहां का हाल पूछ रहे थे। डर के मारे हालत ऐसी हो गयी कि उस रात हमारा पूरा परिवार रात भर एक साथ ही था।
उस दिन की भयानक आपदा के चश्मदीदों का कहना है कि 16 जून की उस रात करीब साढ़े सात बजे बादलो के गरजने की आवाज आ रही थी। और एका-एक एक तेज आवाज आयी और जबतक कोई भी सम्भलता सब कुछ पानी निगल गया। केदारनाथ मंदिर के पीछे चोराबाड़ी झील में लगातार होती वर्षा से पानी का जलस्तर इतना बढ़ गया कि 16 जून को वो किसी डैम की तरह फूट गया और उस उफनते पानी ने केदारनाथ मंदिर से नीचे सब कुछ तबाह कर लिया।
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बस बची तो हर जगह बिखरी लाशें और और इंसानो के बने पक्के मकानों के ढेर। इस आपदा से 10 हजार से ज्यादा लोगों की जिंदगी चली गयी। रुद्रप्रयाग, चमोली उत्तरकाशी और कुमाऊं में भी उस दौरान मूसलाधार बारिश से तबाही मची। मगर जो उस रात रुद्रप्रयाग के केदारनाथ में घटा, उसने सबको झकझोर दिया।
कोई कहता है ये प्राकृतिक आपदा है कोई कहता है मानवीय आपदा। मगर सरकारों ने कभी उसे अपनी गलती के तौर पर नहीं देखा। मगर यदि में कहूं कि केदारनाथ में जो घटा उसका पूर्वानुमान 10 साल पहले ही लगा लिया हो तो। वर्ष 2004 वाडिया इंस्टीट्यूट के ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. डीपी डोभाल से मिली रिपोर्ट पर लक्ष्मी प्रसाद पंत की एक अखबार में लिखी खबर इस आपदा की ओर साफ़ अंदेशा करती है। मगर किसी ने भी सरकार ने इस ओर संजीदगी नहीं दिखाई।
केदारनाथ आपदा के बाद भी आज 200 से अधिक छोटे बड़े डेमों के कई प्रोजेक्ट्स अलकनंदा और मंदाकनी नदी बेसिनों पर बनने पर, हम आँखे मूंदे बैठे हैं। और हमारी ये शीत निद्रा तभी जागती है जब केदारनाथ के बाद रैणि जैसी घटना घटती है। उत्तराखंड में होते विकास के नाम पर विशेषज्ञों के तमाम कहने के बाद भी बेतरतीब दोहन से डर है कि कहीं केदारनाथ आपदा की ही तरह कोई बड़ी घटना इस सुन्दर प्राकृतिक प्रदेश को गहरा घाव न दे दे। केदारनाथ आपदा पर मुझे अपनी लिखी कहानी केदार की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं कि
जिंदगी वक्त का गोल चक्कर है हम इसमें जितने भी आगे बढ़ते जाते हैं हम घूम कर उन्ही तारीखों पर लौट आते हैं जहाँ से हमने चलना शुरू किया था।
उम्मीद करते हैं कि हम केदारनाथ आपदा और रैणि जैसी आपदाओं से कुछ सीखेंगे।
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