रंवाईं कांड : आपने अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेजी अफसर जनरल डायर के क्रूर सैनिकों के सबसे घिनौने कृत्य जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बारे में तो सुना ही होगा। मगर क्या आपने कभी टिहरी रियासत के उसके नागरिकों का निर्मम तरीके से हत्या का इतिहास सुना है? रंवाईं कांड का इतिहास, जिसे टिहरी का जलियाँवाला वाला कांड के नाम से भी जाना जाता है, अगर नहीं तो इस पोस्ट को अंत तक पढ़ें।
टिहरी का जलियाँवाला कांड – रंवाईं कांड का इतिहास
उत्तराखण्ड का इतिहास पर अगर नजर डालें तो इस राज्य के दोनों ही प्रदेश गढ़वाल और कुमाऊँ हमेशा से ही एक स्वतंत्र राज्य रहे। जिसने ना कभी मुगल सलतनत के आगे घुटने टेके ना कभी अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ। मगर उसी इतिहास के स्वर्णिम गौरव का एक काल ऐसा भी आया जब समस्त गढ़राज्य और कुर्मांचल गोरखाओं के अधीन हो गया।
ये वर्ष 1804 ई० की बात है जब कुमाऊँ को विजित कर अमर सिंह थापा की अगुवाई में गोरखाओं की सेना ने पहले कुमाऊँ फिर गढ़राज्य को अपने अधीन कर दिया। 1815 ई० तक गोरखाओं के कुशासन के बाद जब प्रद्युम्न शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से पुन: गढ़राज्य का शासन हासिल किया तो उनके हिस्से में बस टिहरी रियासत ही रह गई। बाकी समस्त कुमाऊँ-गढ़वाल पर अंग्रेजों ने शासन कर दिया।
टिहरी में शासन के दौरान टिहरी नरेशों ने इस प्रदेश की उन्नति व सुख शाँती को कई वर्षों तक बनाए रखा। मगर जब 1853 में भारत में रेलों का आवगमन हुआ तो जंगलों का अत्यधिक दोहन होने लगा। नरेन्द्र शाह जो उस वक्त टिहरी की गद्दी पर आसीन थे। उन्होंने एक अंग्रेज व्यापारी विलसन को टिहरी, हर्सिल के जंगल लीज पर दिए।
उस समय जंगलों के महत्व को किसी ने नहीं जाना था। पर जब इन्हीं जंगलों के अत्यधिक दोहन कर विलसन जैसे कई व्यापारी मालामाल होने लगे। तो टिहरी नरेश ने जंगलों को ठेकेदारों से हटा कर वन विभाग की स्थापना की।
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नरेन्द्र एक कुशल और ज्ञानी शासक थे। उनके दौर में ना सिर्फ उन्होंने टिहरी से राजधानी स्थांतरित कर नरेन्द्र नगर नई राजधानी बनाई। वरन इस क्षेत्र के विकास के लिए स्कूल, रोड और काॅलेजों का भी निर्माण कराया। इस सब के बाद भी नरेन्द्र शाह के शासकीय जीवन में दो घटनाएँ हैं। जिन्हें इनकी कीर्ति पर अपयश के तौर पर देखा जाता है। उनमें से एक घटना है टिहरी का जलियाँवाला वाला कांड।
जब टिहरी नरेश ने वन प्रबंधन और वनों के लिए अलग से कानूनों की व्यवस्था की तो इसके लिए उन्होंने अपने राज्य के मंत्री पद्मदत्त रतूड़ी को प्रशिक्षण के लिए फ्रांस भेजा था। बाद में वह जब लौट के आए तो उन्हें राजा द्वारा डी०एफ०ओ बनाया गया। मगर नए वन कानूनों के निर्माण से जनता में रोष व्याप्त हो गया।
ये रोष इतना अधिक था कि धीरे-धीरे इसने एक जनान्दोलन की शक्ल ले ली। इसमें सबसे प्रमुखता से जिसने आवाज उठाई वे थे रंवाई क्षेत्र के लोगों ने।
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रंवाई की जनता ने ना सिर्फ टिहरी राज्य के नए वन कानूनों का विरोध किया बल्कि एक आजाद पंचायत का भी निर्माण किया। ये आजाद पंचायत जनता को उनके हक के लिए प्रेरित करती थी।
30 मई 1930 को तिलारी नामक स्थान पर जब रंवाई के लोग इसी तरह की एक जनसभा को जब संबोधित कर रहे थे। तब चक्रधर जुयाल और उनके 150 से अधिक सैनिकों ने इस स्थान को तीनों ओर से घेर लिया। लोगों के भागने का कोई स्थान नहीं था आगे चक्रधर जुयाल की सेना थी तो पीछे यमुना की तेज जलधारा।
फिर चक्रधर जुयाल ने अपने सैनिकों ने निर्दोष जनता पर गोली चलाने का आदेश दिया और रंवाई जनता के खून से तिलारी की जमीन को भिगो दिया। कुछ लोगों ने प्राणों के डर से यमुना में छलाँगे लगाई मगर वे भी काल के मुख में समा गए। जो बच गए उन्हें चक्रधर जुयाल अपने सेना के कैंपों में लाकर तलवारों से उनके प्राण ले लिए। क्या बच्चे क्या बूढ़े क्या महिलाएं इस क्रूर वन विभाग के दीवान ने रंवाई के लोगों की निर्मम हत्या की।
30 मई 1930 को तिलारी के खूनी दिन को रंवाई कांड या तिलाड़ी कांड के नाम से जाना जाता है और जनरल डायर जैसे हत्यारे की तरह चक्रधर जुयाल के कुकृत्य को “टिहरी का जलियाँवाला वाला कांड” के नाम से जाना जाता है।
उस समय चक्रधर जुयाल पर रंवाई के लोगों द्वारा बनाई गई कुछ पंक्ति नीचे लिखी गई है। ये पंक्तियाँ रंवाई कांड (तिलाड़ी कांड या टिहरी का जलियाँवाला कांड) की दुखद कहानी कहती है
ऐसी गढ़ पैसी
मू ना मार चकरधर मेरी एकात्या भैसी
तिमला का लाबू
मू ना मार चकरधर मेरो बुढ़वा बाबू
लुवा गढ़ कूटी
कुई मार गोली चकरधर, कुई गंगा पड़ो छूटी ॥
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