रूद्रप्रयाग को पुनाड़ नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन समय में यह बद्रीनाथ व केदारनाथ यात्रा मार्ग की एक महत्वपूर्ण चट्टी हुआ करती थी। समय बदला ओर समय के साथ बदलता गया इस स्थान का स्वरूप, ग्राम सभा से नोटिफाइड एरिया, टाउन एरिया, नगर पंचायत, और आज जनपद मुख्यालय। यही है पुनाड़ (Punar) की विकास यात्रा की कहानी।
18 सितंबर सन् 1997 में पौडी जनपद के खिर्सू विकास खण्ड के एक हिस्से जिसे हम बच्छणस्यूं पट्टी के नाम से जानते हैं। चमोली जिले के पोखरी विकास खण्ड के एक हिस्से तथा अगस्तयमुनि व उखीमठ विकासखण्ड व टिहरी जनपद के जखोली विकासखण्ड को लेकर एक नये जनपद का गठन हुआ। रूद्रप्रयाग प्राचीन काल से ही धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। प्राचीन समय में इसे पुनाड नाम से जाना जाता था।
जनपद रूद्रप्रयाग लगभग 30 डिग्री उत्तरी अक्षांस तथा 78 डिग्री पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। रूद्रप्रयाग जनपद उत्तर में चमोली, उत्तर पश्चिमी भाग पर उत्तरकाशी , पश्चिम में टिहरी तथा दक्षिण भाग में पौडी जनपद स्थित है। जनपद की जनसंख्या कुल भौगोलिक क्षेत्र 2328 वर्ग किमी है। रूद्रप्रयाग प्रदेश के छोटे जनपदों में गिना जाता है। रूद्रप्रयाग में कुल तीन विकासखण्ड, 27 न्याय पंचायते, 338 ग्राम सभा व 680 गांव है। जिनमें से 660 आबाद गांव व 20 गैर ाबाद गांव यानी घोस्ट विलेज हैं।
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रूद्रप्रयाग जनपद में स्थित पर्वत श्रेणियाँ
तुंगनाथ – बद्रीनाथ श्रेणी से तुंगनाथ पर्वत श्रेणी, रूद्रप्रयाग के पास अलंकनंदा के किनारे तक पहुॅचती है। तुंगनाथ श्रेणी में चंद्रशिला 12701, नागनाथ 7038 पर्वत है।
मंदाकनी – केदारनाथ से प्रारंभ होने वाली ये श्रेणियां भागीरथी ओर मंदाकनी की चोटीयों को अलग करते हुए देवप्रयाग तक जाती है।
धनपुर श्रेणी – पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली दूधातोली पर्वत श्रेणी की यह शाखा धनपुर श्रेणियों को आगे बढाते हुए खिर्सू -पौडी होते हुए ब्यास घाटी तक पहुॅचती है।
रूद्रप्रयाग जनपद में स्थित बुग्याल
पवाली कांठा – यह बुग्याल गंगोत्री केदारनाथ प्राचीन पैदल मार्ग पर स्थित है, यह बुग्याल अपनी रमणीयता के कारण विशेष रूप से पर्यटकों के आर्कषण का केन्द्र है।
खाम-मनणी – केदारनाथ से 4 किमी दक्षिण दिशा में कालीमठ से उततर दिशा में 4 किमी की पैछल यात्रा के बाद खाम मनणी बुग्याल पहुॅचा जा सकता है। यहाॅ पर मनणी देवी का मंदिर स्थित है।
तुंगनाथ बुग्याल – समुद्र तल से 11000 हजार से 13 हजार फीट की उंचाई पर तुंगनाथ बुग्याल है। यह बुग्याल तुंगनाथ मंदिर से लेकर चंन्द्रशिला तक 5 किमी क्षेत्र में फैला हुआ है।यहाॅ पर्यटकों का जमावडा लगा रहता है।
केदारनाथ बुग्याल – रामबाडा से आगे ओर सुमेरू पर्वत के नीचे वासुकीताल के आस-पास का क्षेत्र केदारनाथ बुग्याल के अंतर्गत आता है।
कून बुग्याल – उखीमठ के गडगू गाॅव से 3 मील की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर जाख देवता का मदिंर भी है।
रुद्रप्रयाग की बोली
किसी भी क्षेत्र की पहचान वहाॅ की बोली भाषा व संस्कृति से होती है। रूद्रप्रयाग में मुख्यतः गढवाली भाषा की नागपुरिया बोली प्रचलित है। इस बोली में गढवाल साहित्य के क्षेत्र में काफी विकास हुआ है। मन्दाकनी ओर अलकनंदा घाटी में नागपुरिया बोली की भी कई उपबोलियां है जैसे
- बामसवळी बामसू पटटी
- पंचगाई कालीमठ उखीमठ
- दैड़ा – उखीमठ से सटा तुंगनाथ क्षेत्र
- परकण्डयाळली – परकण्डी
- पुर्यात पुरोहित फाट
- दुगामी दुमाग पट्टी
- दशज्यूळी तल्ला नागपुर पट्टी
- मल्ला नागपुरिया, मल्ला नागपुर पट्टी
रूद्रप्रयाग जनपद सांस्कृतिक परिधी से भी संपन्न है
- जनपद का कुछ क्षेत्र हरीयाली देवी का है तो कुछ क्षेत्र तुंगनाथ, मध्यमहेश्वर का। वहीं कुछ क्षेत्र मुनी जी का है जिसे अगस्तयमुनी के नाम से भी जाना जाता है।
- भगवान रूद्र के नाम पर रूद्रप्रयाग पडे इस जनपद में शिव के कई प्रसिद्व मंदिर है।
- जिनमें केदारनाथ, मध्यमहेश्वर, तुगनाथ , ओंकारेश्वर मंदिर, भूतनी देवी मंदिर, विश्वनाथ मन्दिर,
- कोटेश्वर महादेव मंदिर, रूद्रनाथ मंदिर, कैलाश महादेव, समेत अन्य कई छोटे बडे शिववालय यहाॅ मौजूद है।
- किसी भी क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक व सामाजिक महत्वता को वहाॅ लगने वाले मेले व उत्सव बढा देते हैं।
रूद्रप्रयाग में लगने वाले प्रमुख मेले व उत्सव
- वमन द्वादशी मेला – यह मेला त्रियुगीनारायण में वामन द्वादशी के दिन लगाता है।
- ळरियाली थैल – यह मेला गुप्तकाशी, बामसू तथा ल्वारा में चैत्र मास में लगता है। मेले का स्वरूप् धार्मिक है तथा माॅ दइुर्गा को समर्पित है।
- नौमी कौथिग – यह मेला श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के एक दिनबाद भादो मास की नवमी को रानीगढ पट्टी के जसोली गांव में लगता है। प्रति वर्ष लगने वाले इस मेले को पर्यटन विभाग के सहयोग से तीन दिवसीय कर दिया है।
- कालीमठ का मेला – कालीमठ केदारधाटी क्षेत्र में प्रतिवर्ष चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यह मेला लगता है। मेले का स्वरूप धार्मिक है।
- तालतोली थौला- यह मेला गुप्तकाशी, बामसू तथा ल्वारा में चैत्र मास में लगता है, मेले का स्वरूप धार्मिक है तथा आराध्य देवी दूर्गा है।
- नौमी कौधिग – यह मेला श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के एक दिन बाद भादों मास की नवमी को रानीगढ पट्टी के जसोली,गाँव में लगता है प्रतिवर्ष लगने वाले इस मेले को पर्यटन विभाग के सहयोग से तीन दिवसीय कर दिया गया है।
- प्योगू बन्याथ – यह मेला प्योगु गाँव में चैत्र नवरात्र के अवसर पर प्रतिवर्ष लगता है मेले का स्वरूप धार्मिक है तथा आराध्य देवी चण्डिका है।
- कालीमठ का मेला – कालीमठ केदारघाटी क्षेत्र में प्रतिवर्ष चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यह मेला लगता है। मेले का स्वरूप धार्मिक है तथा आरध्य देवी काली है।
- हरमनी जाख मेला – यह मेला 2 गते बेसाख को देवशाल गुप्तकाशी में प्रतिवर्ष लगता है।
मेले सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं लगते बल्कि इनके आयोजन में निम्न मुख्य बाते भी होती थी
- मेलों में रिश्ते तय होते है मेला ही ऐसा स्थल है जहाँ पर लड़का लड़की एक दूसरे से परीचित होते थे।
- मेले में मंवेशियों का व्यापार होता था।
- मेंलो मे लघु उद्योग व ग्रामीण हस्तकला से निर्मित वस्तुओं का विनिमय होता था।
- मेले बहू – बेटियों के मेल – मुलाकात का एक बडा अवसर होता था क्योकि पहले सड़क व संचार की सुविधाओं का नितात अभाव था तथा कृषि कार्यो का बोझ इतना अधिक था कि ग्रामीणों के पास समय का भारी अभाव था अतरू मेले ही मुलाकात के सर्वाधिक लोकप्रिय स्थल थे।
- मेले के अवसर पर मनोरंजन के किसी भी मौके को ग्रामीण नही छोड़ते है. जागर या लोकगीत , लोककनृत्य, तांदी गीत, झुमेलों, चाहडी, रासों नृत्य गीतों का आनन्द बड़े जोशों खरोश के साथ लिया जाता है। मेले में युवतियां ही नही बल्कि वृद्ध महिलाएं भी गहनों एवं पारम्परिक पोशाकों में सजधज कर पहुँचती है और मेले में लगने वाले झुमेलों तांदी नृत्य गीत में अवश्य होता है।
धीरे-धीरे आधुनिकता के प्रभाव में मेलों का प्राचीन स्वरूप खोजा जा रहा है. अब मेलों में न तो तांदी गीत होते है न झुमेलों तथा पारम्पिरक पोशाकों का प्रचलन भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है।
अन्य जानकारी
इनके अलावा जनपद में बधानी ताल मेला, रायडी का मेला, मदमहेश्वर मेला, देवरीयताल मेला, मक्कू देवी मेला, जखोली महोस्तव समेत अन्य कधार्मिक व सामजिक मेले भी यहाँ आयोजित होते हैं। वही रुद्रप्रयाग जनपद से कई महान विभूतियाँ भी रही हैं। जिनमे प्रकृति के चितेरे कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल, संत स्वामी सचिदानंद, शामिल हैं।
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